स्मृतिशेष : बिजली रानी - जिनके बिना अधूरी थी पूर्वांचल की शादियाँ, जमींदार हों या रजवाड़े, नेता हो या कोतवाल सब पर करती थी राज
Bijli Rani: उनका रुतबा कैसा था? लोग कहते थे, शादी की तारीख़ें पहले बिजली से पूछकर तय होती हैं। उन्हीं की उपलब्धता पर मुहर लगती थी। वह सिर्फ़ गायिका नहीं, लोक की वह चेतना थीं जिसने भोजपुरी को जनमानस की जुबान बना दिया था।
Bijli Rani: भोजपुरी संगीत के सुनहरे दौर की परतों को उलटिए। आप पाएँगे कि वहाँ एक गूंज ठहरी हुई है, जो आज भी कई दिलों में धड़कती है। वही आवाज़, जिसने एक वक्त पूरे बिहार और पूर्वांचल को अपने सुरों से थाम लिया था। नाम था, बिजली रानी। यह कहना है हमारे मित्र डॉ देवेंद्र नाथ तिवारी का।
रोहतास ज़िले के नटवार की रहने वाली बिजली रानी। 80 और 90 के दशक में भोजपुरी मंचों की प्रतिष्ठित नाम रही हैं। उनका नाम सुनते ही लोग उमड़ आते थे। जैसे संगीत का कोई उत्सव होने जा रहा हो। उनके कार्यक्रम लोकप्रियता की मिसाल थे। मंच पर एक साथ गायन, अभिनय और नृत्य। एक ऐसी पूर्ण कला, जो सहज भी थी और प्रभावशाली भी।
मुझे मशरख मालगोदाम मैदान का वह दृश्य आज भी याद है। सांसद प्रभुनाथ सिंह की बेटी की शादी। शादी में बिजली रानी आईं। अपनी पूरी मंडली के साथ। चालीस कलाकार। पचास मीटर का मंच। और सवा लाख की भीड़। छपरा से लेकर, थावे-सीवान से लोग आये। बिजली को सुनने। देखने। देर रात जब बिजली रानी ने माइक थामा, तो पूरा मजमा जैसे झूम उठा था। हवा में उनके गीतों की वह खनक आज भी कहीं गूँजती है।
उनका रुतबा कैसा था? लोग कहते थे, शादी की तारीख़ें पहले बिजली से पूछकर तय होती हैं। उन्हीं की उपलब्धता पर मुहर लगती थी। वह सिर्फ़ गायिका नहीं, लोक की वह चेतना थीं जिसने भोजपुरी को जनमानस की जुबान बना दिया था। उनकी आवाज़ में शिल्प नहीं, जीवन था। गीतों में हर्ष‑विषाद का द्वंद्व, और सुरों में वह आत्मीयता जिसने भोजपुरी संस्कृति को जनमानस की चेतना बना दिया।
लेकिन यहीं इस कहानी का दूसरा पक्ष भी है। लोकप्रियता के साथ जो दबाव आया, उसने उनके गान को ‘लोकगीत’ से ‘लोक-मनोरंजन’ की संज्ञा में बदल दिया। बिजली रानी ने उन गीतों को भी आवाज़ दी जिनमें देह और व्यंजना खुलकर आई—‘पियवा जात बाड़ा पुलिस के बलहिया में’, ‘जवनिया भईल बा दारू’ जैसे गीतों ने मंचों से लेकर कैसेट बाजार तक तहलका मचाया । इससे उन्हें वो लोकप्रियता मिली जो शायद किसी और गायिका को नहीं मिली, पर आलोचना भी कम नहीं हुई।
उन्हें एक ओर संस्कृति की वाहक कहा गया, तो दूसरी ओर अश्लीलता की प्रचारक भी। पर कलाकार आखिर कहाँ रुकता है? वह वही गाता है जो समाज सुनना चाहता है, और यही शायद उनकी सबसे बड़ी त्रासदी भी बनी। उनके सुर जो कभी सादगी और जीवन की गंध से भरपूर थे, धीरे-धीरे बाजार की मांगों में घुलते गए। फिर एक समय आया जब वही समाज जो उनके गानों का दीवाना था, उन्हें दूरी से देखने लगा।
लेकिन कला का यही दुख है, वह कभी भी अपने कलाकार की कमजोरी नहीं ढँक पाती। समय बदला, नए मंच और नए स्वर आ गए। जिन्हें कभी राज्य‑सीमाओं से परे सुना जाता था, वे किनारे होते गए। बिजली रानी भी समय की इस धारा में धीरे‑धीरे ओझल हो गईं। आख़िरी वर्षों में बीमारी और आर्थिक संकटों से जूझती रहीं। दोनों किडनियां जवाब दे चुकी थीं। पवन सिंह ने उनकी आर्थिक मदद की थी, पर बीमारी अब इलाज के आगे थी। 24 अक्टूबर 2025 की सुबह उन्होंने अंतिम साँस ली। 70 वर्ष की आयु में।
यह विडंबना नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक उपेक्षा का आईना है कि जो कभी शादियों, मंचों और उत्सवों का केंद्र थीं, उसी कलाकार की मृत्यु पर 'सन्नाटे' की खबर आई। समाचार एजेंसी की कुछ पंक्तियाँ, कुछ सोशल मीडिया श्रद्धांजलियाँ और एक युग की आवाज़ चुप हो गई।
वे मशहूर थीं, पर गईं गुमनामी में। मृत्यु के बाद जिन्हें कुछ याद करने वाले भी न हों, उनका जीवन हर उस कलाकार की दास्तान है जो ताली की चमक में उजला दिखता है, पर अंततः अँधेरे में अकेला रह जाता है। फिर भी, यह अंतिम विराम नहीं। कला मरती नहीं, वह बस रूप बदलती है। बिजली रानी के गीत अब भी पुराने रिकॉर्डों में सांस लेते रहेंगे, श्रोताओं की स्मृति में झंकृत करते रहेंगे। जब भी कोई मंच सजेगा और भोजपुरी गायन की चर्चा होगी, वहाँ एक नाम अनायास उठेगा, बिजली रानी।
क्योंकि लोक की सच्ची ताक़त यह है कि वह विस्मृति में रहकर भी अमर रहती है। और बिजली रानी उसी परंपरा की बेटी थीं—जो मिटती नहीं, बस लौट‑लौट आती है... सुर बनकर।