Religion: समाज का दर्पण, दूध की मेहनत और दारू की महिमा में छिपा जीवन का प्रतीकात्मक संदेश

Religion:जीवन का विडंबनात्मक चित्र आज के युग में मानव मन की राहें कितनी विचित्र हो चली हैं! सत्य और सरलता की राह पर चलने को कोई तैयार नहीं....

दूध की मेहनत और दारू की महिमा में छिपा जीवन का प्रतीकात्मक संदेश- फोटो : Meta

Religion:जीवन का विडंबनात्मक चित्र आज के युग में मानव मन की राहें कितनी विचित्र हो चली हैं! सत्य और सरलता की राह पर चलने को कोई तैयार नहीं, परंतु भटकाव और भोग की राहें सबको प्रिय हैं। यह समाज का वह सच है, जो दूध और दारू के दो विपरीत छोरों में स्पष्ट झलकता है। एक ओर दूध बेचने वाला सुबह की पहली किरण के साथ घर-घर भटकता है, दूध की शुद्धता पर प्रश्न सुनता है, सफाई देता है, और थककर चूर हो जाता है। दूसरी ओर, दारू की दुकान पर लंबी कतारें लगती हैं, लोग स्वेच्छा से पानी मिलाकर उसे गले से उतारते हैं, और उसी में गर्व महसूस करते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जो जीवन देता है, उसे संदेह की नजरों से देखा जाता है, और जो जीवन को भटकाता है, उसे सामाजिक प्रतिष्ठा का तमगा मिलता है!

प्रतीकात्मक सत्य और समाज की दिशा: यह कथा केवल दूध और दारू की नहीं, बल्कि मानव स्वभाव की गहरी पड़ताल है। दारू बेचने वाला अपनी दुकान पर स्थिर खड़ा रहता है, क्योंकि उसका माल मन की कमजोरियों को भाता है। लोग न केवल उसे खरीदते हैं, बल्कि दो पैग के बाद स्वयं को गॉडफादर समझने लगते हैं, चाहे उनकी हकीकत फुटपाथ पर ही क्यों न सिमटी हो। वहीं, दूध बेचने वाला, जो पवित्रता और पोषण का प्रतीक है, समाज के संदेह और उपेक्षा का शिकार होता है। यह समाज का वह दर्पण है, जो हमें हमारी प्राथमिकताओं पर प्रश्न उठाने को विवश करता है।

आत्ममंथन का आह्वान यह कथा प्रतीकात्मक है, परंतु इसका संदेश गहन है। यह हमें स्वयं से प्रश्न करने को प्रेरित करता है—हम कहां खड़े हैं? क्या हम दूध की शुद्धता की तरह सत्य की राह चुनेंगे, या दारू की मस्ती में खो जाएंगे? समाज का सुधार तभी संभव है, जब हम स्वयं को सुधारें। जैसा कि कहा गया, "खुद सुधरोगे, जग सुधरेगा।" यह एक निमंत्रण है आत्मचिंतन का, एक अवसर है सही राह चुनने का, ताकि हमारा समाज न केवल जीवित रहे, बल्कि सत्य और सृजन की ओर बढ़े।

कौशलेंद्र प्रियदर्शी की कलम से....