धार्मिक कहानियां भाग 4: एक साधक को मारने में असफल रहने पर यमराज से मृत्यु का सवाल,मैं किस मनुष्य को मार सकती हूं और कब? यमराज का जवाब हर मनुष्य को जरूर पढ़ना चाहिए..
धार्मिक कहानियां भाग 4: धर्म कथा News4Nation के इस स्पेशल अंक में आज हम आपको बताएंगे कि एक साधक को मारने में असफल रहने पर यमराज ने मृत्यु को क्या बताया मौत की विद्या का रहस्य।
आकाशजोपाख्यानः राम ने वसिष्ठ से अपनी वैराग्यावस्था का वर्णन करते हुए संसार में मृत्यु के साम्राज्य का उल्लेख किया था और यह कहा था कि कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जोकि काल का ग्रास या भोजन न बनता हो। इसके उत्तर में वसिष्ठ ने सर्वप्रथम राम को यह बतलाया कि मृत्यु मात्र अज्ञानी जीव के लिए ही है जिसने कि अपने आपको मरणशील भौतिक देह ही मान रखा है। जो जीव वासनापूर्वक कर्म करता है वही मृत्यु का भाजन है, क्योंकि उसको अपनी वासनाओं की पूर्ति करने के लिए और अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही दूसरी परिस्थितियों में जन्म ग्रहण करना होता है। जो तत्त्वज्ञानी है, जिसके मन में संसार के विषयों के लिए लेशमात्र भी वासना नहीं है, जो सकाम कर्म नहीं करता है अपितु यह अपने आप को सदा ही चिदाकाश में स्थित रखता है और जो भौतिक शरीर का अभिमानी नहीं है, उसके लिए मृत्यु कुछ भी नहीं है। मृत्यु उसको स्पर्श करने में भी असमर्थ है।
आकाशज की कथा
इस विषय में वसिष्ठ ने राम को आकाशज की कथा सुनाई-आकाशज नाम का एक ब्राह्मण था। उसका जन्म शुद्ध चिदाकाश से, बिना कोई पूर्व कर्म किए लीलामात्र से हुआ था। जन्म लेकर भी वह सदा ही अपने चिदाकाशस्वरूप में स्थित रहता था, किसी भी विषय के लिए उसके हृदय में कोई बासना नहीं थी और नहीं वह किसी कामना से प्रेरित होकर कोई कर्म करता था। इस प्रकार का जीवन व्यतीत करते हुए उसको जब बहुत समय हो गया तो मृत्यु को ध्यान आया कि यह ब्राह्मण बहुत समय से जीवित है. अभी तक मरा नहीं, इसको अब मरना चाहिए। मृत्यु ने उसको मारने का बार-बार प्रयत्न किया, किन्तु वह असफल रही। उसको अपने ही नित्य के धर्म का पालन करने में अपने को इतना असमर्थ पाकर आश्चर्य, कष्ट और क्रोध-यह सभी कुछ हुआ। जब अपनी असफलता का कारण मृत्यु की समझ में नहीं आया, तो वह अपने स्वामी यमराज के पास पहुँची और उनको अपने विस्मय आश्चर्य तथा अपनी असफलता का वृत्तान्त सुनाया। उसको सुनकर यमराज बोले-मृत्यु। तुम तो निमित्तमात्र हो। तुम किसी को भी नहीं मार सकती हो। केवल प्राणियों के कर्म ही उनको मारते हैं। जिसने यासनात्मक कर्म किए हैं वही तुम्हारा अथवा मृत्यु का पात्र होता है।
क्षणभङ्गुर शरीर
जाओ, आकाशज के कर्मों का अन्वेषण करो। यदि तुमको उसका कोई भी कामनापूर्वक किया हुआ कर्म प्राप्त हो गया, तो तुम उसको मारने में समर्थ हो सकोगी, अन्यथा नहीं। मृत्यु ने गुप्तचर के समान आकाशज के साथ गुप्तरूप से रहकर उसके जीवन का निरीक्षण किया और उसके पूर्वकालीन जीवन का भी भलीभाँति पता चलाया, किन्तु उसको आकाशज के जीवन में एक भी वासनात्मक कर्म नहीं प्राप्त हुआ। उसकी स्थिति सदा ही आत्मभाव में रहती थी। किसी भी विषय के प्रति उसकी वासना नहीं थी। उसके चित में कोई भी ऐसी कामना नहीं थी जिसकी सिद्धि के लिए यह कोई कर्म करता हो। उसके सभी कार्य स्वभावप्रेरित थे। वह संसार को किसी बस्तु और प्राणी को भी अपने से भिन्न और बाह्य नहीं समझता था। उसको क्षणभङ्गुर शरीर। मन के साथ आत्मत्व का अभिमान नहीं होता था। तब मृत्यु की समझ में आ गया कि आकाशज का जीवन क्यों उसके नियन्त्रण से बाहर है। वह यमराज के पास पुनः गई और उनसे यह बोली कि जो आप कहते थे वह उचित ही था। मैं किसी को नहीं मारती, प्राणियों के कर्म ही उनको मारते हैं।
साभार
योगवाशिष्ठ:
महारामयणम