Bihar Vidhansabha Chunav 2025: बिहार में बंपर वोटिंग से सियासत की चालें तेज, क्या 60 फीसदी वोटिंग फॉर्मूला फिर आरजेडी को पहुंचाएगा सत्ता की दहलीज़ पर? मतलब क्या पढ़िए...
अगर इतिहास इस बार भी वही पन्ना दोहराता है तो तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब नजर आते हैं और......
Bihar Vidhansabha Chunav 2025: बिहार विधानसभा के लिए पहला चरण निपट चुका है और बिहार ने ऐसा उत्साह दिखाया जिसकी मिसाल पिछले कई चुनावों में नहीं मिलती. 18 जिलों की 121 सीटों पर करीब 65 फीसदी मतदान ने सियासी गलियारों में हलचल बढ़ा दी है. यह सिर्फ वोटिंग नहीं, एक सियासी संदेश भी है. चुनाव आयोग भी इस अप्रत्याशित उत्साह पर बेहद खुश है और दूसरे चरण में भी इसी मोमेंटम की उम्मीद कर रहा है.
दिलचस्प यह है कि विपक्ष पिछले महीने हुए स्पेशल इंटेंसिव रिविजन को लेकर लगातार चुनाव आयोग पर धांधली और वोटर लिस्ट में गड़बड़ी के आरोप लगाता रहा. मगर जनता ने उन आरोपों से इतर बूथ तक जाकर यह साबित कर दिया कि जनता का मूड बदला हुआ है. वोटिंग पर्सेंटेज खुद कह रहा है खंड-खंड में बंटे समाज ने इस बार चुप्पी नहीं, चुनाव का रास्ता चुना है.
इतिहास बताता है कि बिहार में जब भी वोटिंग 60 फीसदी से ऊपर गई, सत्ता की चाबी जनता दल या बाद में बने आरजेडी के हाथ में आई. यही कारण है कि इस बार भी राजनीतिक दलों की धड़कनें तेज हैं. सभी दल इस भारी मतदान को अपने पक्ष में बताते फिर रहे हैं लेकिन कच्चा हिसाब-किताब बताता है कि मौका महागठबंधन के लिए खासा मुफीद है.
पहले चरण में 1,314 उम्मीदवारों की किस्मत इवीएम में बंद हो चुकी है. उनमें तेजस्वी यादव, दोनों डिप्टी Cसीएम सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा समेत कई दिग्गज शामिल हैं. अब जंग दूसरे चरण की 122 सीटों पर शिफ्ट हो गई है, और चुनावी सभाओं में भाषा, तेवर और दांव सब और तेज हो चुके हैं.
पिछले 40 सालों का रिकॉर्ड बड़ा दिलचस्प है। साल 1985 में वोटिंग 56.27 फीसदी हुई और कांग्रेस की बंपर जीत हुई और 196 सीटें जीती थीं।1990 की बात करें तो 62.04 फीसदी मतदान हुऔ और जनता दल ने लालू प्रसाद यादव को सत्ता की चाबी थमा दी। अब बात 1995 में 61.79 फीसदी हुई और लालू की वापसी के साथ जनता दल का दबदबा कायम रहा।साल 2000 में 62.57 फीसदी वोटिंग हुी और राबड़ी देवी की अगुवाई में आरजेडी सत्ता में लौटी। इन चारों मौकों पर एक ही नतीजा आया था था और वो था लालूवादी राजनीति की जीत।
बिहार में बंटवारे के बाद राजनीति की जमीन बदली, सामाजिक समीकरण बदल गए और कानून-व्यवस्था पर सवालों ने जनमत का रुख पलट दिया। साल 2005 के दो चुनाव 46.5 फीसदी और 45 फीसदी वोटिंग हुई। कम वोटिंग और नीतीश कुमार की एनडीए सरकार की शुरुआत हुई।
2010—52 फीसदी वोटिंग हुई। 2015—56.91 फीसदी वोटिंग हुई। 2020—57.29 फीसदी वोटिंग हुई। यह स्पष्ट था जैसे-जैसे वोटिंग कम हुई, एनडीए के लिए रास्ता खुला और राजद सत्ता से दूर होती गई। अब 2025 आते-आते परिदृश्य फिर वैसा ही बन रहा है जैसा 1990 और 2000 में था ।
इस बार वोटिंग बंपर हुई। युवा बूथ तक पहुंचा और महिला वोटर्स की तादाद बढ़ी. यहीं नहीं बेरोजगारी, पलायन, महंगाई और सिस्टम से नाराज़गी चरम पर है यानी हवा में बदलाव की बू है, और विपक्ष यही दावा कर रहा इस बार जनता बटन दबाकर हिसाब चुकाएगी।
उधर सत्ता पक्ष का तर्क है कि तेज मतदान मतलब बेहतर कानून-व्यवस्था और लोकतंत्र पर भरोसा लोगों का कायम है। बहरहाल दोनों अपनी-अपनी व्याख्या पेश कर रहे हैं, मगर असली संकेत सिर्फ एक वोटर साइलेंट है, लेकिन फैसला शोर मचा रहा है।
अगर इतिहास इस बार भी वही पन्ना दोहराता है तो तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब नजर आते हैं और नीतीश कुमार का दो दशक पुराना युग राजनीतिक किताब में सिर्फ अध्याय बनकर रह जाएगा।
हालांकि सावधानी जरूरी है अभी एक चरण की वोटिंग बाकी है और फिर मतगणना भी। वैसे भी बिहार में राजनीति का थर्मामीटर कई बार आखिरी मौके पर चढ़ता-उतरता देखा गया है।ये चुनाव सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं सिस्टम, उम्मीद और भरोसे की जंग है।
सवाल वही है कि क्या 60 फीसदी का यह सियासी गणित फिर से आरजेडी के हाथ सत्ता सौंपेगा?या जनता कोई नया अध्याय लिखने जा रही है? बहरहाल बिहार चुप है लेकिन बूथों के ईवीएम की आवाज बताती है,इस बार फैसला भारी और ऐतिहासिक होने वाला है।