एससी/एसटी एक्ट हर मामले में लागू नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा - एक्ट तभी लागू होगा जब अपमानित करने की मंशा हो
दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला लेते हुए साफ कर दिया है कि एससी-एसटी एक्ट कानून के तहत अपराध तभी लागू होगा, जब पूरे समुदाय को अपमानित करने का इरादा हो. यह व्यक्तिगत टिप्पणी पर लागू नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ ST Act) के तहत अपराध के लिए की गई शिकायत से उत्पन्न मामले का फैसला करते हुए कहा कि अपमान के आरोप को होने की आवश्यकता को पूरा करना होगा.दअरसल मरूनादान मलयाली चैनल चलाने वाले यूट्यूबर शाजन स्कारिया को अग्रिम जमानत देते हुए न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने यह आदेश दिया है.
अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि उसके खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ ST Act) के तहत अपराध किया गया. इसके आधार पर उन्होंने ट्रायल कोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 156 के तहत आवेदन दायर किया. आवेदन में एफआईआर दर्ज करने के लिए निर्देश देने की मांग की गई और वही वर्तमान आपराधिक अपील का आधार है. इसके बाद अदालत ने मामले की प्रारंभिक जांच का आदेश दिया और अवलोकन के बाद आवेदन खारिज कर दिया.न्यायालय ने कहा कि यदि याचिका में आरोप अस्पष्ट हैं और अपराध की सामग्री का खुलासा नहीं करते हैं तो एफआईआर दर्ज करने और जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया है कि जब तक कि आरोपी का इरादा जातिगत पहचान के आधार पर अपमानित करने का न हो, अनुसूचित जाति या एसटी के किसी सदस्य का अपमान करना एससी और एसटी अधिनियम 1989 के तहत अपराध नहीं है. अदालत ने कहा 1989 के तहत अपमान करना या धमकी देना अपराध नहीं माना जाएगा, जब तक कि ऐसा अपमान या धमकी इस आधार पर न हो कि पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से संबंधित है.
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा कीपीठ ने आगे कहा कि अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे य निर्धारित करने के लिए अपने न्यायिक दिमाग का उपयोग करें कि शिकायत में लगाए गए आरोप, सामान्य रूप से पढ़ने पर कथित अपराध के तत्वों को संतुष्ट करते हैं या नहीं. न्यायिक दिमाग का ऐसा उपयोग स्वतंत्र होना चाहिए और शिकायत/एफआईआर में उल्लेखित प्रावधानों से प्रभावित नहीं होना चाहिए.
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि अदालतों की भूमिका तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब मामले पर प्रथम दृष्टया निष्कर्ष आरोपी व्यक्ति को अग्रिम जमानत मांगने से रोकता है, जो व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पहलू है.
सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 3 की जांच की. धारा 3(1)(आर) किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को सार्वजनिक रूप से किसी भी स्थान पर अपमानित करने के इरादे से किया गया जानबूझकर अपमान या धमकी को अपराध बनाता है.न्यायालय ने धारा में "सार्वजनिक दृश्य के भीतर किसी भी स्थान पर" वाक्यांश के उपयोग को रेखांकित किया. इस पृष्ठभूमि के साथ न्यायालय ने अपीलकर्ता के आरोप की जांच की और प्रथम दृष्टया इसे अस्पष्ट पाया.