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Shardiya Navratri 2024: यहां गिरा था मां सती का कपोल,जानिए मां चंडीस्थान का रोचक इतिहास

बगहा में मां सती का कपोल गिरा था

Shardiya Navratri 2024: प•चम्पारण के बगहा में शक्ति पीठ चंडीस्थान में  मां सती का कपोल गिरा था , नवरात्र में  माता का विशेष पूजा यहां होती है.  रतनमाला के दियारा मे 1920 में गंडक के कटाव के बाद यहां लाई गई थी माता की पिंडी. और बेतिया राज ने मंदिर का निर्माण कराया था। शारदीय नवरात्र में नगर के मलपुरवा स्थित शक्ति पीठ मां चंडीस्थान में पूजा अर्चना को लेकर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जमा होती है। नवरात्रि को लेकर मंदिर श्रद्धालुओं के लिए पुरी तरह से सज धज कर तैयार है। प्रति दिन सुबह से लेकर शाम तक पूजा अर्चना को लेकर श्रद्धालु भक्तों का ताता लगा रहता है। नवरात्रि के नौ दिनों में माता के नौ रूपों की पूजा की जाती है। राज्य में माता के कई सिद्धपीठों में से एक चंडी स्थान का भी स्थान है। जो बगहा-बेतिया एनएच 727 मुख्य पथ में  मलपुरवा के समीप सड़क से मुश्किल दो सौ गज की दूरी पर दक्षिण में है। सामान्य दिनों में भी यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। नवरात्र के दौरान मंदिर की रौनक और भी बढ़ जाती है। यहां उत्तर प्रदेश, बिहार, नेपाल के अलावा अन्य राज्यों के भी श्रद्धालु पूजा अर्चना के लिए आते हैं। मान्यता है कि यहां पर जो भी मन्नत मांगी जाती है, माता उसे पूरा करती हैं। इस मंदिर का वर्णन चंपारण गजट में भी किया गया है।

1920 में हुई थी मंदिर की स्थापना, माता सती का गिरा था कपोल , पुजारी  एवं स्थानीय लोगों के अनुसार यह स्थान पहले बगहा नगर के गंडक नदी के किनारे रतनमाला रेता में पिंड स्वरूप में था। जहां पर रत्नमाला सहित दियरा गांव के साथ-साथ अन्य गांव के लोग भी मां चंडी की पूजा करते थे। आजादी के पहले वर्ष 1919 में भारी बारिश के कारण गंडक नदी उफान पर थी। रतनमाला मोहल्ला में भी चारों तरफ से पानी भर गया। वहां से लोग पलायन करके मलपुरवा में आकर बस गए। और मां का मंदिर दियरा में रह गया। लेकिन कुछ ही दिनों में लोगों को तरह-तरह के स्वप्न आने लगे। पुजारी पंडित उमेश मिश्र ने बताया कि उस समय एक समय ऐसा आया की नदी के पानी का रंग लाल हो गया था। इसके बाद  बेतिया राज की महारानी जानकी कुंवर ने 1920 में बनारस से पंडितों को बुलाकर इस घटना के और स्वप्न के बारे में पूरी जानकारी ली। इसके बाद महारानी स्वयं माता की डोली को लेने पंडितों के साथ रतनमाला पहुंची। और विधि पूर्वक पूजा के बाद माता के आसन को डोली में रखा गया। वहां से बाजे-गाजे के साथ डोली बेतिया के लिए प्रस्थान हुआ। परन्तु माता की डोली जब रतनमाला से मूलपुरवा पहुंची। जहां पर पहले से रतनमाला के लोग आकर बसे थे। वहां पर डोली का वजन काफी बढ़ गया। जो उठने से भी नहीं उठा।

महारानी ने डोली को वहीं रखवा दिया। फिर से उठाने का प्रयास किया गया, लेकिन डोली नहीं उठी। इसके बाद वहीं पर माता को स्थापित कर दिया गया। बाद में महारानी जानकी कुंवर द्वारा इस मंदिर का निर्माण करवाया गया।

पुजारी बताते हैं इस मंदिर से जुड़े कई बार चमत्कार होने के दावे भी किए जाते हैं। उन्होंने बताया की स्थानीय बयोवृद्ध लोग बताते हैं, कि एक बार किसी स्थानीय दबंग ने देर रात मंदिर का दरवाजा खोल दिया था। इसके बाद अंदर आग लग गई थी। फिर पुजारियों ने लोगों के साथ मिलकर मां  की प्रार्थना की तो आग शांत हुई। अगली सुबह मंदिर के अंदर लोग गए तो कुछ भी जला हुआ नहीं था। इसके बाद से ही रात 10 बजे से लेकर सुबह 3 बजे तक मां का कपाट बंद रहता है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा दक्ष के यहां से माता के जले शरीर  को जब भगवान शिव कंधे पर लेकर लेकर तांडव करने लगे थे।  इसके बाद पृथ्वी हिलने लगी। तथा मां के जले शरीर को कन्धे पर रख भगवान शिव हिमालय के ओर लेकर चल दिए। तब पूरी सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से 51 टुकड़ों में सती के शव को विभक्त किया। इस दौरान इस स्थान पर माता का कपोल गिरा था।

रिपोर्ट-आशिष कुमार




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