Manikarnika Ghat: काशी...मणि के विसर्जन से मोक्ष का प्राकट्य, मणिकर्णिका जहाँ खोना ही है परम प्राप्ति, यहाँ जलती चिताएँ शोक की नहीं, मुक्ति की हैं प्रतीक, पढ़िए महाश्मशान की कहानी....

Manikarnika Ghat:मणिकर्णिका के घाट पर देह नहीं जलती, यहाँ अहंकार, कर्मग्रंथि और पुनर्जन्म का बीज भस्म होता है। यही आगमिक सत्य है जहाँ सब कुछ खो जाता है, वहीं परम सत्य की प्राप्ति होती है। मणिकर्णिका की अग्नि कभी बुझती नहीं। ...

 Manikarnika cremations symbol of liberation
काशी...मणि के विसर्जन से मोक्ष का प्राकट्य- फोटो : social Media

Manikarnika Ghat:माँ गंगा के शाश्वत तट पर अवस्थित काशी काल के प्रवाह में स्थित वह अक्षय भू-खंड, जहाँ समय स्वयं अपनी गति को विस्मृत कर देता है। गंगा का प्रवाह वहाँ केवल जलधारा नहीं, अपितु सनातन मंत्र की अनवरत ध्वनि है। काशी के मणिकर्णिका की भूमि उस समय भी वैसी ही थी धीर, गंभीर और उदात्त मानो जीवन और मृत्यु के द्वंद्व को अपनी गोद में समेटे निश्चल खड़ी हो। ऐसा प्रतीत होता था कि काल स्वयं यहाँ ठहरकर अस्तित्व के रस का आस्वादन कर रहा हो।

कहते हैं उसी दिव्य क्षण में माता पार्वती, भोलेनाथ के साथ गंगा तट पर विचरण कर रही थीं। गंगा की लहरों में झरती ज्योति, महाश्मशान की मौन गरिमा, भस्म से आवृत तट और काशी की दैवी उष्मा सब मिलकर एक अलौकिक वातावरण की सृष्टि कर रहे थे। तभी विचरण के मध्य मां जगदम्बा के कर्णाभूषण का पेंच शिथिल हुआ। दिव्य मणि से जटित वह झुमका अकस्मात् पृथ्वी पर गिर पड़ा और गंगा तट की धूल में कहीं विलीन हो गया। “मेरा झुमका…”—देवी क्षण भर को ठिठक गईं। मां जगतजननी का स्वर शोकाकुल नहीं, अपितु विस्मय से भरा था। उन्होंने सहज भाव से त्रिनेत्रधारी शंकर की ओर देखा और कहा, “स्वामी, मेरा झुमका कहीं गिर गया है, उसे खोज दीजिए।”

मस्तमौला महादेव खोज में प्रवृत्त हुए। त्रिलोचन ने कण-कण का निरीक्षण किया, शूल से भूमि को टटोला, भस्मधारी ने श्मशान की राख को उलट-पलट कर देखा; किंतु वह मणि कहीं दृष्टिगोचर न हुई। तब शंकर समझ गए कि यह कोई साधारण वस्तु नहीं, यह खोज साधारण नहीं है। उन्होंने भगवान नारायण का स्मरण किया। क्षणमात्र में नारायण प्रकट हुए। शंकर ने निवेदन किया, “देवि पार्वती की कर्णमणि इस भूमि पर गिर गई है, किंतु प्राप्त नहीं हो रही।” नारायण ने सुदर्शन चक्र का आवाहन किया। चक्र काल की गति बनकर घूमा, धरती के गर्भ में उतरा, पाताल की गहराइयों तक गया; परंतु वहाँ भी मणि का कोई संकेत न मिला। आश्चय, चक्र भी रिक्त लौट आया।

तभी यह स्पष्ट हो गया कि मणि अब किसी एक स्थान की वस्तु नहीं रही। वह इस भूमि में तत्त्व रूप से विलीन हो चुकी थी। उसी क्षण से उस घाट का नाम पड़ा मणिकर्णिका, जहाँ मणि गिरी और फिर कभी नहीं मिली। माता पार्वती मौन खड़ी रहीं। उनका हृदय वियोग की अग्नि से भारित था। उन्होंने गंगा की ओर देखा और अंतःकरण में कहा “मुझे ज्ञात है कि मेरी मणि इसी गंगा में है, इसी तट पर है, किंतु यह मुझे लौटा नहीं रही। आज मेरा हृदय जिस अग्नि में दग्ध है, उसी अग्नि की साक्षी यह भूमि भी बने।”

तत्क्षण देवी ने वरदान रूप में कहा, “जैसे मेरा अंतःकरण इस वियोग में जल रहा है, वैसे ही यहाँ अग्नि सदा प्रज्वलित रहे। इस तट पर चिताएँ कभी शीतल न हों। यहाँ देह का अंत हो, ताकि आत्मा बंधन से मुक्त हो सके।” उस क्षण से मणिकर्णिका केवल घाट नहीं रही, वह महाश्मशान बन गई। यहाँ जलती चिताएँ शोक की नहीं, अपितु मुक्ति की प्रतीक हैं। यहाँ अग्नि मृत्यु का उत्सव नहीं, मोक्ष का प्रकाश है। मान्यता है कि स्वयं महादेव यहाँ तारक मंत्र का उच्चारण करते हैं, ताकि जो प्राणी यहाँ देह त्याग करे, वह संसार के आवर्तन से सदा के लिए मुक्त हो जाए।

आगमिक दृष्टि से यह कथा मात्र लोक-आख्यान नहीं, अपितु गहन तत्त्व-संकेत है। आगम में घटनाएँ इतिहास नहीं, प्रतीक होती हैं। माता पार्वती शक्ति तत्त्व हैं और भगवान शंकर चेतना तत्त्व। कर्णमणि श्रवण-शक्ति, नाद और तत्त्व-ग्रहण की प्रतीक है। उसका गिरना यह दर्शाता है कि सृष्टि क्षेत्र में प्रवेश करते ही शुद्ध तत्त्व स्थूलता में लुप्त हो जाता है।

भगवान शंकर द्वारा मणि का न मिलना यह संकेत देता है कि चेतना, शक्ति के बिना प्रकट तत्त्व को धारण नहीं कर सकती। नारायण का चक्र काल, कर्म और कारण-शक्ति का द्योतक है। उसका भी रिक्त लौट आना बताता है कि जो तत्त्व भूमि में विलीन हो गया, वह पुनः नहीं लौटता। यहीं मणिकर्णिका का रहस्य उद्घाटित होता है। काशी कोई भौगोलिक नगर नहीं, बल्कि महाश्मशान है , जहाँ पंचमहाभूत अपने कारण में लीन हो जाते हैं। यहाँ कुछ भी संरक्षित नहीं रहता; यहाँ देवी की मणि भी विसर्जित हो जाती है।

इसी कारण मणिकर्णिका की अग्नि कभी बुझती नहीं। यह लकड़ी की लौ नहीं, देवी के विरह से उत्पन्न तत्त्व अग्नि है। यहाँ देह नहीं जलती, यहाँ अहंकार, कर्मग्रंथि और पुनर्जन्म का बीज भस्म होता है। यही आगमिक सत्य है जहाँ सब कुछ खो जाता है, वहीं परम सत्य की प्राप्ति होती है। मणिकर्णिका सिखाती है कि खोना ही मुक्ति है, और जलना ही परम शांति।

कौशलेंद्र प्रियदर्शी की कलम से....