Bihar Student News : टूटते ख़्वाब बिखरते अरमान और ऐम्बुलेंस में सफेद चादर से ढकी लाशों के आंकड़े आपकी रूह को दहला देंगे। इस साल जनवरी से लेकर अब तक छात्रों की आत्महत्या का 17वां मामला है। पिछले साल 2023 में 25 और पिछले 10 सालों में 160 से ऊपर मौतें हुई हैं. लेकिन, कोटा में हर कोई मिलकर मौत की गंध मिटाने में लगा हुआ है।
15-16 साल के बच्चे को कैसे जिंदा मशीन में बदल दिया जाए। सबकुछ बेरोक-टोक चलता रहता है, जब तक कोई मशीन धड़कना बंद नहीं कर देती कोटा में बच्चे भले ही फ्यूचर बनाने आते हों, लेकिन ये वो शहर है, जहां भविष्य भी आकर बीत भी चुका। वही कंपीटिशन, वही डिप्रेशन, वही अकेलापन और मौतें, लेकिन अब भी मुंहमांगी कीमत और अपनी शर्तों पर डॉक्टर और इंजीनियर बनाने का ख्वाब बिकता है। न्यूज 4 नेशन की एक पड़ताल...
बिहार के वैशाली निवासी मयंक सिंह 8 महीने पहले की कोटा में जेईई की तैयारी करने आया था। 11वीं का छात्र मयंक रोड नंबर-5 इलाके में वेलकम प्राइम हॉस्टल में रहता था। छात्र ने कमरे में फांसी का फंदा लगाकर अपनी जान दे दी। छात्र ने फोन नहीं उठाया तो परिजनों ने हॉस्टल संचालक को फोन किया। शुक्रवार सुबह स्टाफ ने कमरे में जाकर देखा तो गेट बंद था। आवाज देने पर भी गेट नहीं खुला। स्टाफ ने गेट तोड़ तो अंदर छात्र का शव फंदे से लटका मिला। अपना नाम छिपाने की शर्त पर एक छात्र कहता है शहर बारूद के ढेर पर बसा है।एक चिंगारी और सारी चमक-दमक राख हो जाएगी। इमारतें डिब्बा बन जाएंगी।मुर्दा बचपन की कीमत पर जिंदा है ये शहर।
राजस्थान का कोटा शहर यूं छात्र-छात्राओं के लिए एक बड़ा शिक्षण-प्रशिक्षण केंद्र माना जाता है, जहां वर्षों से जो हो रहा है, वो तो हो ही रहा है। लेकिन इस साल जनवरी से लेकर अब तक कोटा में यह आत्महत्या का 17वां मामला है। खुदकुशी की बढ़ती घटनाओं ने सबको सकते में डाल दिया है। आप सिर्फ उसकी कहानी भर सुन लेंगे, तो कांप उठेंगे। इससे पहले कि हम वो कहानी आपको बताएं, ज़रा कुछ तारीखों पर नजर डाल लें।
डरावने आंकड़े
इस साल यानी वर्ष 2024 में 16 वर्षीय मयंक समेत कुल 17 छात्रों ने जिंदगी को अलविदा कह दिया है। पिछले एक साल 25, तो वही 2022 में 29 और पिछले दस सालों में 160 से ऊपर छात्रों ने जिंदगी को अलविदा कह दिया। मुर्दा बचपन की कीमत पर आबाद ये आंकड़े उस कोटा शहर के हैं, जो बचपन को मुंहमांगी कीमत और अपनी शर्तों पर डॉक्टर और इंजीनियर बनाने का ख्वाब बेचता है। इस ख्वाब की कोई गारंटी नहीं होती। लेकिन मासूम बचपन को कामयाब जिंदगी देने की ख्वाहिश में तमाम मां-बाप ना सिर्फ बिना गारंटी वाले इस ख्वाब को खरीदने की होड़ में लगे हैं, बल्कि जाने अनजाने वो अपने बच्चों के बचपन को कामयाब जिंदगी की बजाय मुर्दा बचपन की तरफ धकेलने का काम कर रहे हैं ये डरावने आंकडें बस उसकी बानगी भर हैं।
बढ़ते रहेंगे ऐसी मौत के मामले
इसमें कोई दो राय नहीं कि जिदगी एक इम्तेहान है, लेकिन कोटा जैसी फैक्ट्री अगर इम्तेहान को ही जिंदगी बनाने लगे,तो ये आंकडे़ कम होने की बजाय आने वाले वक्त में बढ़ते रहेंगे। अब ये मां-बाप को तय करना है कि वो अपने बच्चों को क्या देना चाहते हैं? खुशहाल और कामयाब जिंदगी या फिर मुर्दा बचपन।
कोटा आते ही बदलने लगती है सोच
सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि कोटा में अबतक खुदकुशी की है उनमें से ज्यादातर बच्चे दो, चार या आठ महीने पहले ही कोटा पढ़ने आए थे। विगत 10 साल के आंकड़े यानी 160 बच्चों में महज 10% भी ऐसा बच्चा नहीं है जो एक-दो साल से कोटा में रह रहा हो।बिहार के वैशाली निवासी मयंक सिंह 8 महीने पहले की कोटा में जेईई की तैयारी करने आया था।
यानि इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि एक बच्चा जब कोटा मे कदम रखता है, तो उसके कुछ दिन बाद से ही उसकी जिंदगी और सोच दोनों बदलनी शुरु हो जाती है। इससे ये पता चलता है कि कोटा आने के बाद अगले कुछ महीनों तक अगर बच्चों का खास ख्याल रखा जाए, खासकर कोचिंग सेंटर, पीजी, हॉस्टल के जिम्मेदार और परिवार वालों की तरफ से तो शायद मुर्दा बचपन की तादाद कम हो जाए।
कुल आबादी का सिर्फ 0.7 फीसदी हैं डॉक्टर-इंजीनियर
आखिर 16, 17, 18 साल के बच्चे कोटा फैक्ट्री पहुंचने के बाद सिर्फ एक इम्तिहान में फेल हो जाने के डर से इतना बड़ा क़दम क्यों उठा लेते हैं? जिन्होंने अभी जिंदगी और जिंदगी की जद्दोजहद तक नहीं देखी वो मासूम बचपन में ही मौत के अलग-अलग तरीके क्यों कर ढूंढने लगते हैं? एक कामयाब जिंदगी या जिंदगी के पेशे के नाम पर सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर ही तो नहीं है। वर्ल्ड बैंक की 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल आबादी का सिर्फ और सिर्फ 0.7 फीसदी हिस्सा ही डॉक्टर और इंजीनियर हैं। यानि ये हमारी आबादी का 1 फीसदी भी नहीं है।ये आंकड़ें इस बात के गवाह है कि डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा भी सैकड़ों ऐसे पेशे हैं जो एक खुशहाल जिंदगी की गारंटी देते हैं।
कोटा में पढ़ने वाले 400 बच्चों पर रिसर्च
कोटा में मुर्दा बचपन पर डॉ. दिनेश शर्मा ने बड़ी तफ्सील से रीसर्च किया है. आइए जानते हैं कि आखिर बच्चे इस मासूम उम्र में इतना सख्त फैसला क्यों ले लेते हैं? डॉक्टर दिनेश शर्मा ने अपनी रीसर्च में कोटा में पढ़ने वाले करीब 400 बच्चों को शामिल किया था। इस रीसर्च के दौरान उन्होंने पूरी डीटेल में बच्चों के दिमाग को पढ़ने की कोशिश की। इस रीसर्च के दौरान कई चौकाने वाली बातें सामने आईं।
कुल सिर्फ इतनी है सीटें
कोटा में इस साल भी लगभग 2 से ढाई लाख बच्चे कोचिंग के लिए पहुंचे हैं।अगर आंकड़ों की बात करें तो हर साल NEET और JEE का एग्जाम क्लियर कर डॉक्टर और इंजीनियर बनने वाले लाखों छात्र एग्जाम में बैठते हैं। 2023 के आंकड़ों के मुताबिक डॉक्टर बनने के लिए नीट के एग्जाम में इस साल देशभर से कुल 20 लाख 38 हजार 500 छात्र बैठे थे। जिनमें से 11 लाख 45 हजार 900 ने एग्जाम क्लियर किया। जबकि MMBS की कुल सीटें सिर्फ 1 लाख थी।
ऐसे बढ़ता है बच्चों पर दबाव
इसी तरह इंजीनियर बनने के लिए होने वाले JEE एग्जाम में 2022 में कुल 10 लाख 26 हजार 799 छात्रों ने अपनी किस्मत आजमाई। लेकिन इनमें से सिर्फ ढाई लाख छात्रों को ही अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल पाया। NEET और JEE के एग्जाम में कोटा की कामयाबी का प्रतिशत 8 से 10 फीसदी है। जबकि देश के बाकी सेंटर्स की कामयाबी का प्रतिशत सिर्फ 3 फीसदी। यही वजह है कि पूरे उत्तर भारत के ज्यादातर छात्र डॉक्टर और इंजीनियर बनने के लिए कोटा फैक्ट्री का रुख करते हैं। हालाकि एक सच ये भी है कि यहां आने वाले ज्यादातर स्टूडेंट्स दसवीं और बारहवी में 80 या 90 फीसदी से ज्यादा नंबर लेकर पहुंचते हैं। और बस यहीं से मां-बाप की उम्मीदें बढ़ जाती हैं और बच्चों पर दबाव। हालांकि ऐसा नहीं है कि इस दबाव से बच्चों को बाहर नहीं निकाला जा सकता। पर जरूरी है इसके लिए खुद बच्चा, उसके पेरेंट्स और कोचिंग सेंटर वाले कुछ जरूरी कदम उठाएं।
कुलदीप भारद्वाज की रिपोर्ट