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Narak Chaturdashi 2024: रूप चतुर्दशी और सौंदर्य विधान का है बेहद खास नाता, सुंदरता के निखार से जुड़ा है आज का दिन

रूप यानी चौदह! रूप का मतलब चांदी, रुपया इसी कारण नाम पड़ा। यह रूप्यक से हुआ। रूप मतलब मूर्ति या प्रतिमा। रूपमंडन, रूपाधिकार जैसे शास्त्र मूर्ति विषयक हैं। रूप यानी नख से सिख तक की नैसर्गिक या कृत्रिम प्रतीति।

Narak Chaturdashi
Narak Chaturdashi - फोटो : Social Media

Narak Chaturdashi 2024: भारतीय सनातन परम्परा में 14 की संख्या लोक, आलोक, इंद्र, मनु, विद्या, रत्न आदि की पर्याय मानी गई है। चौदस भी इनकी प्रतीक और इनके गुण धर्म वाली तिथि है। रूप और सौंदर्य से इसका संबंध चौदहवीं का चांद जैसी उपमा से ही नहीं, रूप चौदस जैसे बनाव सिंगार से भी है। रूप यानी चौदह! रूप का मतलब चांदी, रुपया इसी कारण नाम पड़ा। यह रूप्यक से हुआ। रूप मतलब मूर्ति या प्रतिमा। रूपमंडन, रूपाधिकार जैसे शास्त्र मूर्ति विषयक हैं। रूप यानी नख से सिख तक की नैसर्गिक या कृत्रिम प्रतीति। यह तिथि अपना चित्र स्वरूप लिए हैं। इससे जुड़ी कथाएं नई हैं, अधिक पुरानी नहीं।


नरकासुर की पौराणिक कथा कही जाती है। इसके साथ लोक जीवन में यह पर्व स्‍नान, सौन्‍दर्य और सुख संचय का पर्व है। याद आते हैं वे सन्‍दर्भ जिनसे ज्ञात होता है कि अभिजात्‍य कुलों में परिचारिकाएं बनाव शृंगार की सामग्री लिए वधू के दायें-बायें रहती थीं। शृंगार मंजुषाएं उनके हाथ में होती थी और मूर्घ्‍नाशृंगी से लेकर नाना प्रकार के सुगन्धित चूर्ण, आलता, अभ्यंग सामग्री आदि लिए वे रुचि और ऋतु के अनुकूल शृंगार कार्य करती थीं। 


कभी रूपसत्र का विवरण देखा है! कांदर्पिका का अध्याय देखा है! आंखों को भा जाएगा, मन को लुभा जाएगा। प्रसाधन और गंधयुक्तियां नज़र से निकली हैं? भारत ने संसार के सामने सौंदर्य के लिए मानक विधान दिए हैं। भयोत्पादन के लिए सिंगार शुरू हुआ लेकिन सम्मोहन का हेतु हो गया! सुहाग बांटा जाता है तो सिंगार की वस्तुएं होती हैं। विवाह में महिला मंगल के क्रम में रूपसखी हर न्यौते वाले घर में रूप साधन लेकर जाती है : बायन, मेहंदी का कोन, वेणी, परांदा, आलता, लाख की चूड़ी और नासिका का लवंग आदि! बिन रूप के ब्याह कैसा! बिन रूप, कैसे भूप! 


पूर्वकाल में पुष्‍य स्‍नान नामक अनुष्‍ठान बहुत ही लोकप्रिय था। यह संभ्रांत परिवारों, खासकर शासक वर्गों में प्रचलित था और बहुत विधिपूर्वक होता था। इसमें कांगुुनी, चिरायता के फल, हरड़, अपराजिता, जीवन्‍ती, सोंठ, पाढरि, लाज मंजिठा, विजया, मुद्गपर्णी, सहदेवी, नागरमोथा, शतावरी, रीठा, शमी, बला के चूर्णों से जल-कलशों काे भरा जाता था। ब्राह्मी, क्षेमा या काठ गुगुल, अजा नामक औषधि, सर्वौषधि बीज और अन्‍य मंगल द्रव्‍यों को भी उन कलशों में डाला जाता था। इस विधि से पुष्‍य नक्षत्रगत चंद्रमा का सुयोग देखकर स्‍नान किया जाता था। कई प्रकार के मंत्रों का पाठ किया जाता : 


कलशैर्हेमताम्रैश्‍च राजतैर्मृण्‍मयैस्‍तथा। 

सूत्र संवे‍ष्टितग्रीवै: च चन्‍दननागरु चर्चितै:। 

प्रशस्‍त वृक्ष पत्रैश्‍च फलपुष्‍प समन्वितै:। 

पुण्‍यतोयेन संपूर्णै रत्‍नगर्भै: मनोहरै:।। 

(बृहत्‍संहिता में गर्गोक्ति 48, 38)

 यह स्‍नान सुरूप, स्‍वास्‍थ्‍य, समृद्धि, सुख, विजय आदि के उद्देश्‍य से होता था। जैसा कि वराहमिहिर ने भी इस विधि को लिखा है लेकिन यह विधि लिंगादि पुराणों में भी है, जाहिर है यह लोकप्रिय रही है।

यह भी ज्ञेय है कि रूप चतुर्दशी धातु पूजन का अवसर भी है। रूप का आशय है चांदी। चांदी के सिक्‍के से ही हमें रूपया शब्‍द मिला है जिसको पहले 'रुप्‍यकाणि' या 'रूपा' कहा जाता था। मेरे घर में रूपा नाणा (चांदी की मुद्रा) बोला जाता है। मराठी में नाणा शास्त्र अभी भी प्रचलित है। कुबेर की पहचान उसकी नौली से रही है। 'नौली' से आशय है कमर या हाथ में रखने योग्‍य रूपयों की थैली। यक्षों की मूर्तियों के साथ नौली का अंकन मिलता है। 


भारत में विशेषकर भंडारों में कुबेर की स्‍थापना की जाती थी, अर्थशास्‍त्र में यह संदर्भ मिलता भी है। लक्ष्‍मी प्रारंभ में इंद्र के साथ थी, फिर कुबेर के साथ और कालांतर में विष्‍णु के वामभाग में और चरण सेवा करती आईं, जब भार्गवों ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्‍वीकारा। अन्‍यथा वह कुबेर के साथ ही स्‍वीकारी गई। 


उत्‍तर वैदिक 'श्रीसूक्‍त' में इसका विवरण आया है, उसमें कुबेर यक्ष का नाम देवसख: और उनके मित्र मणिभद्र नाम आया है, मत्स्य और वायु पुराण मणिचर भी नाम है, उनके ही आगमन से कीर्ति, रिद्धि और मणियां मिलती हैं- 

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्‍च मणिना सह। 

प्रादुभूतोऽस्मि राष्‍ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धि ददातु मे। (श्रीसूक्‍त 7)

 इनकी समृद्धि निधि क्यों कहलाई। हम समय समय पर कितने - कितने अर्थ लगाते और समझाते जाते हैं लेकिन आज तक संपदा वाले कुबेर ही माने गए हैं। 


यह प्राचीन संदर्भ है और इतना महत्‍वपूर्ण है कि यामलों से लेकर आर्थव परिशिष्ट और छठवीं सदी के विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण तक में यह सूक्‍त आया है। महालक्ष्‍युपनिषद में भी इसका अंशांश मिल‍ता है। देखने वाली बात ये है कि यह लक्ष्‍मी के रूप में सुवर्ण और चांदी की खानों से मिलने वाले पाषाणखंडों को प्रद्रावित कर धातु प्राप्‍त करने के लिए जातवेद या अग्नि से प्रार्थना की गई है- 

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्‍मीमनपगामिनीम्। 

* डॉ. श्रीकृष्ण "जुगनू" के सोशल मिडिया से

 


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