Mahashivratri 2025: दानी कहुँ संकर-सम नाहीं। दीन-दयाल दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं।। भगवान शिव याचक के लिए कल्पतरु हैं। जैसे कल्पवृक्ष अपनी छाया में आए हुए व्यक्ति को अभीष्ट वस्तु प्रदान करता है, वैसे ही शिव भी। शिव और शिव का प्रलयकालीन तांडव. विद्यानिवास जी के शब्दों में इसी तांडव की रात्रि की सर्वगाँठ है महाशिवरात्रि। विष्णु सोने के बनते हैं, ताँबे के बनते हैं, कम-से-कम शिला के तो बनते ही हैं, पर मिट्टी से भी बन सकने वाले शिव ही केवल हैं। जीवन के धुँधले प्रभात से लेकर अब तक जिस शिव की छाप स्मृति पर दुहराई जाती रही है, वे मिट्टी के पार्थिव ही तो हैं। शिव का पार्थिव बनाया और पूजा करके पीपल के पेड़ के नीचे ढुलका दिया। न सोने का सिंहासन चाहिए और न सम्पुट, न वस्त्र और न स्नानार्घ्य की झंझट। मन की मौज रही बनाया, पूजन किया; चित्त ठीक रहा, रुद्री से, नहीं तो फिर केवल नम: शिवाय, कोई बंधन नहीं, कोई बाध्यता नहीं।
भूति और विभूति के देवता शिव को भव-विभव से इतनी निरपेक्षा, न जाने क्यों अन्नपूर्णा ने इनके लिए मुनियों को भी मात करने वाली कठिन तपस्या की? और 'श्मशान-यूप के साथ विवाह वेदी की सत्क्रिया' हुई, 'गजाजिन और हंसदुकूल का गठबंधन' हुआ। शिवरात्री के दिन रतिपति के सखा बंसत ने दरिद्र कपाली को जगदंबा का सोहाग भरते देखा। भोले शिव अपना आधा खोकर अर्धनारीश्वर बने और समन्वय के परमोच्च 'कैलाशस्य प्रथम शिखरे वेणुसम्मूर्च्छनाभि:' समवेत होकर तांडव रचने लगे।शशिशेखर का यह मधुर तांडव उन्हें तरल सुधा से आप्यायित करके उन्हें गहन अंधकार में भी विचरण करने का बल प्रदान करता।
कर्पूरधवल भुजाओं में लिपटे हुए 'कारे-कारे डरावरे' भुजंग भुजाओं के बार-बार कसे जाने से लंबी-लंबी साँसे ले रहे हैं । परमयोगी त्रिलोचन को भी पुलकित कर देता है और इस प्रकार परंपरया उनकी परानंदसिद्धि करता हुआ या तांडव अपनी चरम सिद्धि को प्राप्त करता है।
महाशिव रात्रि को भव और विभव के देव मां शक्ति मां पार्वती के तपस्या से प्रसन्न होकर एक सूत्र में बंधते हैं। स्कंदपुराण के अनुसार, शिवरात्रि वह विशेष रात्रि है जो शिवतत्व से गहराई से जुड़ी हुई है। भगवान शिव की अत्यंत प्रिय रात्रि को शिवरात्रि या कालरात्रि के नाम से जाना जाता है। हिंदी पंचांग के अनुसार, फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। यह मान्यता है कि महाशिवरात्रि के प्रदोषकाल में भगवान शंकर और देवी पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था। प्रदोष काल में महाशिवरात्रि की तिथि पर सभी ज्योतिर्लिंगों का प्रकट होना भी माना जाता है।
बहरहाल मनुष्य सबसे अधिक मृत्यु से भयभीत होता है। उसके प्रत्येक भय का अंतिम कारण अपनी या अपनों की मृत्यु ही होती है। शव भय का प्रतीक हैं तो शिव अभय के। उस भय से मुक्ति पा लेना ही शिव है। शिव किसी शरीर/रूपाकार मात्र का नाम नहीं है, शिव वैराग्य की उस चरम अवस्था का नाम है जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा, भय और अवसाद से मुक्त हो जाता है। शिव होने का अर्थ है वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना, जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे बल्कि उसे भी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा मान कर उसे पर्व की तरह समझा जाये। शिव जब शरीर में भभूत लपेट कर नाच उठते हैं तो समस्त भय, भौतिक गुणों-अवगुणों से मुक्ति का पथ-प्रदर्शन करते हैं, यही शिवत्व है।