Health:भारतीय महिलाओं में बढ़ता मोटापा, केवल खानपान नहीं, ये करने से भी फैलता है शरीर
Health: मोटापा एक निजी समस्या नहीं, बल्कि सामूहिक चिंता बनकर उभरा है। हर दूसरी स्त्री, इस अदृश्य बोझ से जूझ रही है

Health: पिछले कुछ दशकों में हमारे समाज में मोटापा एक निजी समस्या नहीं, बल्कि सामूहिक चिंता बनकर उभरा है। हर दूसरा व्यक्ति, खासकर हर दूसरी स्त्री, इस अदृश्य बोझ से जूझ रही है—एक ऐसा बोझ, जो न केवल शरीर पर, बल्कि मन और समाज की धारणा पर भी भारी पड़ता है। यह केवल वसा का जमावड़ा नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक विडंबना है।
आंकड़ों का आईना
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आँकड़े जब सच की चादर हटाते हैं, तो तस्वीर और भी भयावह हो जाती है। भारत की 24% महिलाएं ओवरवेट हैं, जबकि पुरुषों में यह आंकड़ा 22.9 है। अगर बात पेट की गोलाई की करें, जो केंद्रीय मोटापे का स्पष्ट संकेतक है, तो 40% महिलाएं और केवल 12% पुरुष मोटापे की श्रेणी में आते हैं। लेकिन यह केवल आंकड़ों की लड़ाई नहीं है, यह सवाल है—क्यों? क्यों हमारी स्त्रियाँ, जो घर की रीढ़ हैं, अपनी ही काया के बोझ तले दब रही हैं?
जैविक संघर्षों की भूमि: स्त्री का शरीर
स्त्री का शरीर जैविक संघर्षों की एक अनवरत भूमि है। किशोरावस्था की देह की उठापटक से लेकर मासिक धर्म की नियमित पीड़ा, गर्भधारण की भारी जिम्मेदारी और फिर मेनोपॉज की धीमी थकावट—इन सबके बीच शरीर बार-बार बदलता है। इन बदलावों के पीछे होते हैं हार्मोन, जो चुपचाप चर्बी का ढेर लगा जाते हैं, विशेषकर पेट, जांघ और कूल्हों में। ये हार्मोनल उतार-चढ़ाव, जो प्रकृति ने स्त्री को दिए हैं, अक्सर उसके वजन पर गहरा असर डालते हैं, उसे एक ऐसे शारीरिक युद्ध में धकेलते हैं जहाँ वह अपने ही शरीर के विरुद्ध खड़ी होती है।
अदृश्य श्रम और 'व्यायाम' का भ्रम
लेकिन हार्मोन ही एकमात्र गुनहगार नहीं हैं। भारत की अधिकांश महिलाएं घर की चहारदीवारी में बंद एक अनकहा संघर्ष जीती हैं—सारा दिन घर के काम, परिवार की सेवा, और खुद के लिए ‘थोड़ा समय कभी नहीं।’ उन्हें लगता है कि झाड़ू-पोछा और रसोई की भागदौड़ ही व्यायाम है, लेकिन यह केवल शारीरिक थकान है, वास्तविक व्यायाम नहीं। उनका शरीर मूवमेंट नहीं करता, केवल बंधा रहता है—कर्तव्य की अदृश्य जंजीरों में। यह निष्क्रियता, कर्तव्यपरायणता के लिबास में, धीरे-धीरे उनके मेटाबॉलिज्म को धीमा कर देती है और वजन बढ़ाने में सहायक होती है।
आहार की अनदेखी
आहार के मामले में भी स्थिति चिंताजनक है। महिलाएं कभी नहीं सोचतीं कि उन्हें कितना प्रोटीन, कितना फाइबर, कितनी ऊर्जा चाहिए। वे अक्सर अपनी भूख को टाल देती हैं, लेकिन परिवार की थाली कभी खाली नहीं रहने देतीं। बची हुई चीजें खाना, बच्चों की थाली से उठाना या खुद के लिए पौष्टिक भोजन की उपेक्षा करना—यह सब आत्म-बलिदान का एक मौन रूप है, जो धीरे-धीरे उनके शरीर को बीमारियों की भूमि बना देता है। यह त्याग, जो भारतीय संस्कृति में स्त्री का गुण माना जाता है, उसकी सेहत पर भारी पड़ता है।
पुरुष बनाम स्त्री: श्रम का अंतर
वहीं पुरुष—काम पर जाते हैं, चलते हैं, दौड़ते हैं, जिम जाते हैं, खुद पर ध्यान देते हैं। उनका शरीर बाहरी दुनिया में गतिमान रहता है, सक्रिय रहता है। लेकिन स्त्रियों के हिस्से में आता है घर के कोनों में बिखरा अनदेखा परिश्रम, जो शरीर से ऊर्जा छीन लेता है, लेकिन उसे स्वस्थ नहीं बनाता। यह शारीरिक निष्क्रियता, जो घरेलू कार्यों के दौरान अक्सर छिपी रहती है, मोटापे को न्योता देती है।
चुप्पी तोड़ने का वक्त
मोटापा एक बीमारी नहीं, एक सामाजिक परछाईं है, जो महिलाओं की ज़िंदगी पर सबसे ज्यादा गहराती है—कभी हार्मोन की चाल में, कभी कर्तव्यों की भीड़ में, और कभी खुद को 'नजरअंदाज' करने की आदत में। यह एक ऐसी चुप्पी है जिसे समाज और स्वयं स्त्रियाँ भी दशकों से ढो रही हैं।