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आखिर क्यों मनाते हैं मुस्लिम मोहर्रम ?

आखिर क्यों मनाते हैं मुस्लिम मोहर्रम ?

आपकी जानकारी के लिए बता दें, मोहर्रम  बिल्कुल भी खुशी का पर्व नहीं है, बल्कि यह वह शोक का पर्व है। यही नहीं मुसलमानों का शिया समुदाय तो छाती पीटते हैं और खून निकालकर मोहर्रम के दुख का इज़हार करते हैं।दरअसल इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम है। इस्लाम मज़हब की नीव पैग़ंबर मोहम्मद साहब ने रखी थी। इस मज़हब की बुनियाद हज़रत मोहम्मद ने एक अल्लाह की ईबादत, ज़कात, नमाज़, रोज़ा  पर रखी। उन्होंने झूठ मक्कारी, फरेबी, जुआ और शराब से मुसलमानों को बचने की सलाह दी। अरब में जैसे-जैसे इस्लाम का विस्तार होने लगा, वहाँ के कई दिग्गज नेता और दानिश्वर लोग मोहम्मद साहब से बैअत (शपथ) करने लगें।


वक्त बीता और पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद वफ़ात के बाद मोहम्मद साहब के दुश्मनों ने उनके घर पर हमला करना शुरू कर दिया। इसका पहला प्रमाण तब मिला जब मोहम्मद साहब की बेटी और हज़रत अली की पत्नी हज़रत फ़ातिमा पर हमला हुआ। उनपर उन्ही के घर का दरवाज़ा गिरा दिया गया, जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ही समय में उनकी मौत हो गई। इसके बाद इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा और शिया मुसलमानों के पहले इमाम हज़रत अली पर इब्ने मुल्ज़िम नाम के शख्स ने हमला किया। हज़रत अली पर जब हमला किया तब वह नमाज़ पढ़ रहे थे। जिस तलवार से उनपर वार किया गया उसे ज़हर के पानी में रखा गया था। हज़रत अली अरब के सबसे महान योद्धा थे, जिनसे शरीरी दम लड़ा नहीं जा सकता था। इसलिए उन्हें मारने के लिए इब्ने मुल्ज़िम ने नमाज़ के समय को मुनासिब समझा। इसके बाद हज़रत मोहम्मद  के नवासे और हज़रत अली के बेटे ह़जरत हसन को ज़हर देकर मार दिया गया।



शाम (सीरिया) में हज़रत मुआविया की हुकुम्मत थी। मुआविया एक अच्छा ख़लीफ़ा नहीं था। उसमें सत्ता को चलाने के गुण नहीं थे। मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त का दारोमदार यज़ीद को मिला। यज़ीद शुरूआत से ही इस्लाम के ख़िलाफ़ चला। यज़ीद कहता तो अपने आपको को मुसलमान था लेकिन उसमें सारे गुण इबलीस (शैतान) के थे। यज़ीद अय्याशतरीन शख़्स था जो जुआ भी खेलता था। यज़ीद उनपर दबाव बनाने लगा। यज़ीद ने अपने दूत भेज कर उनसे बैअत करने का प्रस्ताव रखा। हज़रत हुसैन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें मालूम था यज़ीद एक अच्छा ख़लीफ़ा बनने योग्य नहीं है। यज़ीद ने हुसैन को मारने के लिए मक्का में गुप्त हत्यारों को तैनात कर दिया था। इस बात की भनक जैसे ही हुसैन को हुई उन्होंने अपनी हज यात्रा को रोक दिया, ताकि मुसलमानों के पवित्र शहर में खून खराबा न हो। इसी के साथ हज़रत हुसैन मदीना को छोड़ कर अपने परिवार और चाहने वालों के साथ इराक के लिए रवाना हुए।



इराक का एक शहर है करबला। यह इराक की राजधानी से 100 किमी दूर है। करबला की एक नदी है फुरात। फुरात नदी के पास ही यज़ीद के लशकर ने हज़रत हुसैन के काफ़िले को घेर लिया था। दूसरे मोहर्रम के दिन हज़रत हुसैन ने, करबला को अपने क़याम का स्थान बनाया। उनके साथ उनके 72 अनुयायी थे। इसके विपरीत यज़ीद का लशकर हज़ारों सिपाहियों का था। जो पूरी तरह हथियारबंद थे। सातवें मोहर्रम पर यज़ीद के सिपाहियों ने फुरात नदी को अपने अधीन कर लिया, ताकि हुसैन और उनके साथी पानी न पी सकें। इसी के साथ हुसैन के काफ़िले पर यज़ीद के लशकर ने तीरों से हमला करना शुरू कर दिया था। यज़ीद हुसैन को हराने की लालच में इतना अँधा हो चुका था कि उसने बच्चे बूढ़े किसी पर भी तरस नहीं खाया। हुसैन ने जब पानी के लिए यज़ीद के लशकर के सामने अपने छः महीने के बेटे अली असगर दिखाया तो यज़ीद ने अपने साथी हुर्मला को हुक्म दिया कि वह देख क्या रहा है? हुसैन के लाल अली असगर पर तीर चला। हुर्मला ने यज़ीद के हुक्म की पैरवी की और तीर चलाया। तीर अली असगर के गले पर जाकर लगा और वह वहीं तड़पते-तड़पते शहीद हो गए। इसी तरह आखिर में यज़ीद ने शिम्र को हुक्म दिया की वह हुसैन का सिर धड़ से अलग कर दें। शिम्र ने ऐसा ही किया, हुसैन सजदे में थे जब उन्हें शहीद किया गया। इसमें केवल हुसैन के बेटे जैन-उल-आबिदीन बच पाए क्योंकि वह 10वें मोहर्रम के दिन बीमार थे। यज़ीद ने हुसैन की सभी महिलाओं को बंदी बना लिया और कई ज़ुल्म किए। इन्हीं जुल्मों सितम और तशद्दुद की याद में मुसलमान समुदाय के लोग मोहर्रम को मनाते हैं।



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