गया: वैश्विक महामारी कोरोना ने अपने साथ मौत की इतनी संख्या कर ली है कि अब इसे गिनना किसी के बूते की बात नहीं है। लाशों को जलाने, दफनाने के लिए जब जगहें कम पड़ गयी तो लोगों ने इसे गंगा में भी बहाना शुरू कर दिया। हाल ही में सामनी आयी तस्वीरें भी इसकी गवाह है। इन सबसे इतर सरकार व प्रशासन इन मौतों के आंकड़े को छुपाने की फेर में लगे हैं। लेकिन इन मौतों की गवाही वो कफन भी दे रहे हैं, जिनका प्रयोग अंतिम संस्कार के वक्त होता है। गया में चादर-गमछे बनाने वाले बुनकर लगातार कफन ही बना रहे हैं। इसकी वजह से इनके डिमांड में आयी तेजी।
जहां बनते थे गमछे, वहां बन रहा है कफन
गया के मानपुर का पटवा टोली। वही पटवा टोली जिसकी पहचान यहां के उन बच्चों से है, जो आइआइटी को क्लीयर कर के उच्च शिक्षा को हासिल करते हैं। इस पटवा टोली में कफन बनाने वालों को एक लम्हे की भी फुर्सत नहीं है। जिस जगह पर गमछा या चावल बनता था, वहां अब केवल कफन बन रहे हैं। दरअसल पटवा टोली में कई कारोबारी हैं, जिनमें करीब छह ऐसे कारोबारी हैं जो गमछे के साथ पूरे साल कफन तैयार करते हैं। अन्य बुनकरों का मुख्य पेशा सूती गमछे व चादर तैयार करना है। छोटे कारोबारी जहां हाथ से काम करते हैं, वहीं बड़े कारोबारी लूम मशीन से कफन तैयार करते हैं। इसी पटवा टोली के कारोबारी द्वारिका प्रसाद कहते हैं, फरवरी-मार्च माह में सभी कारोबारियों के पास कुल मिलाकर 15 से 20 हजार तक कफन प्रतिदिन की सप्लाई थी लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। अब हर दिन कम से कम 40 से 50 हजार पीस कफन की सप्लाई की जा रही है। यह तेजी अप्रैल माह से आयी है। यहां मुख्य रूप से छह बड़े कारोबारी हैं और हर किसी के पास अच्छे ऑर्डर हैं। दुखी मन से वह आगे कहते हैं, जिस जगह पर केवल गमछे व चादर का ऑर्डर होता था, उसकी जगह अब कफन ने ली है। इस कारण से हम लोगों को 24 घंटे काम करना पड रहा है। आंखों में आती मायूसी के साथ ही वह यह भी कहते हैं, अपने 45 साल के जीवन में मैंने इस कदर ऑर्डर नहीं देखा था। इस कोरोना ने हजारों लोगों के घरों को उजाड़ दिया है। यहां बन रहे कफन इस बात को अच्छी तरह से तस्दीक कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इतने ऑर्डर आते ही नहीं।
पूरा परिवार कर रहा है काम
इसी पटवा टोली के कारोबारी सुरेश तांती कहते हैं, गुजरे 25 दिनों से कफन की मांग बढ़ गई है। पहले हर दिन एक से दो हजार पीस के ही ऑर्डर हुआ करते थे लेकन अब तीन से पांच हजार पीस ही कफन तैयार किया जा रहा है। पूरा परिवार काम कर रहा है। वहीं एक और कारोबारी डोलेसर पटवा कहते हैं, इतनी बडी संख्या में ऑर्डर को देखकर मन दुखी हो जाता है। लेकिन क्या करें, यही हमारी रोजी-रोटी है। पेट पालने व बच्चों के लिए काम तो करना ही होगा। अप्रैल माह में बडी संख्या में ऑर्डर मिले।
पटना है कफन की मेन मंडी
दरअसल गया से बिहार के प्रमुख शहरों में माल सप्लाई होती है। कफन की मुख्य मंडी पटना है। कफन में एक चौका मतलब चार पीस होते हैं। बड़ा कफन हो या छोटा, सब पर कुछ न कुछ प्रिंटिंग रहती है। आम भाषा में इसे रामनामा कहते हैं। पीले रंग के कफन पर प्रिंटिंग नहीं होती है। कुछ कफन सादे भी होते हैं। कफन सूती, टेरीकॉटन व सिल्क होते हैं। रामनामा तीन आकार में 25, 35 व 45 रुपये की दर से होलसेलर को दिया जाता है। सामान्य क्वालिटी वाले कफन छह रुपये से 15 रुपये तक की दर से थोक विक्रेताओं को दिया जाता है।