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जयंती विशेष : सत्ता को चुनौती देने वाले 'जनकवि' बाबा नागार्जुन, 'वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं', इंदिरा पर भी चली कलम

जयंती विशेष : सत्ता को चुनौती देने वाले 'जनकवि' बाबा नागार्जुन, 'वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं', इंदिरा पर भी चली कलम

पटना. 'वतन बेचकर पंडित नेहरू फूले नहीं समाते हैं, फिर भी बापू की समाधि पर झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं'. सत्ता के सबसे ताकतवर शख्सियत पर कविताओं से हमला करने वाले  बाबा नागार्जुन की रविवार को जयंती है. उनका जन्म 30 जून 1911 को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था. यह उन का ननिहाल था. उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था. उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था लेकिन कविताओं के क्षेत्र में उन्होंने नागार्जुन और यात्री के नाम से कविताएँ लिखी तो बाबा नागार्जुन के नाम से ही प्रसिद्ध हो गए.  हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया. 

बाबा नागार्जुन की अपने दौर के उन कवियों में रहे जिन्होंने राजनीतिक और सामाजिक तौर पर जमकर कलम चलाई. उनकी लेखनी में जनविरोधी राजनीतिक कृत्यों पर प्रहार किया गया. इसमें देश के प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पर लेना सबसे खास रहा. सन् 1961 में एलिजाबेथ द्वितीय भारत दौर पर आई थी; तब बाबा एक कविता पढ़ते हैं-  

आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी, 

यही हुई है राय जवाहरलाल की. 

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की, 

यही हुई है राय जवाहरलाल की. 

जवाहर लाल नेहरु ही नहीं बाबा नागर्जुन ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पर भी जोरदार तरीके से कलम चलाई.

इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको? 

बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!’ 

नागार्जुन ने अपनी कविताओं में नेहरू, इंदिरा, मोरारजी, विनोबा सबके खिलाफ समान धार से कलम चलाई.

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, 

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास’ कविताओं के ऐसे बोल रहे जिसने जन चेतना को झकझोरने का काम किया. जन सरोकार के मुद्दों की मुखरता से तरफदारी उनकी विशेषता रही. अपने समय की हर महत्वपूर्ण घटनाओं पर प्रहार करती कवितायें लिखने वाले बाबा नागार्जुन एक ऐसी हरफनमौला शख्सियत थे जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं और भाषाओं में लेखन के साथ-साथ जनान्दोलनों में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया और कुशासन के खिलाफ तनकर खड़े रहे.

रोजी-रोटी हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा 

कोई भी हो निश्चय ही वो कम्युनिष्ट कहलाएगा

इसी तरह से बाबा नागार्जुन ने जब 1975 में जब आपातकाल लगा नागरिकों के मूल अधिकार जब्त होने लगे, लोगों को जेलों में ठूसा जाने लगा। अभिव्यक्तियां बुरी तरह कुचली जा रहीं थीं,  लोगों को बोलने की भी आजादी नहीं थी ऐसे में बाबा जो अपने स्पष्टवादी छवि के लिए जाने जाते थे, निर्भीकतापूर्वक अपनी कविताओं के जरिए सवाल पूछे- 

क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको?

सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को?

इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?

बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!

क्या हुआ आपको? क्या हुआ आपको?

कई नेता अकाल, भूकंप या बाढ़ जैसी घटनाओं पर हवाई सर्वेक्षण करते हैं। एक बार बाबा के हत्थे चढ़ गए; बाबा ने लिखा-

"हरिजन गिरिजन भूखों मरते, हम डोलें वन-वन में,

तुम रेशम की साड़ी डाटे, उड़ती फिरो गगन में।"


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