PATNA – बिहार में शराबबंदी लागू होने के दो साल बाद अबतक का सबसे काला सच सामने आया हैं. शराबबंदी को सफल बनाने में जुटी बिहार पुलिस कार्रवाई के लिए सॉफ्ट टारगेट को तलाशती है. यह हम नहीं कह रहे बल्कि खुद राज्य सरकार के आंकड़े चीख चीखकर यह बता रहे. शराबबंदी कानून के तहत बिहार में सबसे ज्यादा गाज पिछड़े, दलितों और आदिवासियों पर गिरी है. बिहार में 6 अप्रैल 2016 को नीतीश सरकार ने पूर्ण शराबबंदी लागू करते हुए शराब पीने वालों के ख़िलाफ़ सख्त सजा का प्रावधान किया था. तब से लेकर आज तक हर दिन राज्य के कोने – कोने से शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तारी की ख़बरें आती रहती हैं. लेकिन ज्यादातर मामलों में निशाने पर छोटी मछलियाँ होती हैं.
बिहार को ड्राय स्टेट बनाना
चाहते हैं नीतीश
बिहार में शराबबंदी लागू
करने का निर्णय को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के व्यक्तिगत फैसले के तौर पर देखा
जाता है. बिहार को ड्राय स्टेट बनाना नीतीश कुमार का सपना है लेकिन हकीकत यही है कि
शराबबंदी के दो साल बाद भी हर दिन शराब पीने वालों और उसका कारोबार करने वालों की
गिरफ्तारी की तादाद बढ़ती जा रही है. मतलब की शराब माफिया की सक्रियता रोक के
बावजूद बढ़ी है. पीने वालों तक शराब पहुंच रही है तभी उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई भी हो
रही है.
समाज के कमजोर वर्ग के
ख़िलाफ़ हुई सबसे ज्यादा कार्रवाई
बिहार में शराबबंदी कानून
के तहत क़ानूनी कार्रवाई के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. इस कानून के तहत पिछले दो साल
में सबसे ज्यादा कार्रवाई पिछड़े, दलितों – आदिवासियों के ख़िलाफ़ हुई है. सूबे के
जेलों में शराबबंदी कानून के तहत बंद कैदियों के आंकड़े बताते हैं कि बंदियों में 27
फ़ीसदी अनुसूचित जाति के हैं जबकि बिहार की जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी 16
प्रतिशत है. राज्य में अनुसूचित जनजाति की कुल आबादी का महज 1.3 फ़ीसदी हैं लेकिन
शराबबंदी कानून के तहत बंदियों में इनकी तादाद 6.8 फ़ीसदी है. ओबीसी का भी हाल कम
बुरा नहीं है, बिहार की कुल आबादी में 25 फ़ीसदी जनसंख्या है लेकिन शराबबंदी कानून
के बंदियों में ओबीसी की तादाद सबसे ज्यादा 34 फ़ीसदी है. सबसे दिलचस्प यह है कि
शराबबंदी कानून के तहत जितने लोगों पर कार्रवाई हुई उनमें से 80 फ़ीसदी शराब का
आदतन इस्तेमाल करने वालों में से हैं.
कानून की पकड़ से बाहर हैं
रसूखदार
इन आंकड़ों के ठीक उलट बड़े
तबके से आने वाले लोग शराबबंदी कानून की पकड़ से बाहर हैं. एक तो उन्हें अपने रसूख
का फ़ायदा मिल रहा और दूसरी तरफ पुलिस भी बड़ी मछलियों पर हाथ डालने से परहेज करती
है. पुलिस को केवल शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तारी दिखने से मतलब है इसलिए सॉफ्ट
टारगेट निशाने पर हैं.
क्या है वजह ?
बड़ा सवाल यह कि आख़िर बिहार
में शराबबंदी कानून के तहत सबसे ज्यादा कार्रवाई समाज के कमजोर वर्ग के ख़िलाफ़ ही
क्यों हो रही है? इसका सबसे मुख्य करान पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों में शिक्षा
की कमी को माना जा सकता है. नीतीश सरकार ने शराबबंदी लागू करने से पहले जागरूकता
अभियान की शुरुआत नहीं की इसे भी एक बड़ा कारण के तौर पर देखा जा सकता है...लेकिन
सबसे बड़ा सवाल सरकार से है... मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दो साल पहले शराबबंदी लागू
करते वक़्त एलान किया था कि शराब पीने वालों की आदत छुड़ाने के लिए काउंसलिंग का भी
इंतजाम होगा. लेकिन अब तक काउंसलिंग के स्तर से कोई बेहतर नतीजे सामने आते नहीं दिख
रहे. फिलहाल सबसे कड़वा सच यही है कि राज्य में शराबबंदी कानून पिछड़ों, दलितों और
आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गया है.