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महागठबंधन सरकार के एक साल पूरे... तराजू पर सियासी मेढ़क तोलने में सफल रहे नीतीश, भाजपा के खिलाफ लड़ाई के बने नायक, क्या खोया -क्या पाया, पढ़िय इनसाइड स्टोरी

महागठबंधन सरकार के एक साल पूरे... तराजू पर सियासी मेढ़क तोलने में सफल रहे नीतीश, भाजपा के खिलाफ लड़ाई के बने नायक, क्या खोया -क्या पाया, पढ़िय इनसाइड स्टोरी

पटना. 9 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई थी. तब से भारत के इतिहास में इस तारीख को इसी आंदोलन के लिए याद किया जाता है. लेकिन पिछले वर्ष 9 अगस्त 2022 बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होकर महागठबंधन की सरकार बनाई और बिहार में यह तारीख एक नए सियासी इतिहास में दर्ज हो गया. जैसे 9 अगस्त 1945 को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के शहर नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर बड़ा उथलपुथल मचा दिया था वैसे ही 9 अगस्त 2022 को नीतीश कुमार का बिहार की सियासत में लिया गया यह निर्णय भाजपा के खिलाफ एक युद्ध का शंखनाद ही था. 

नहीं सफल हुई सियासी कयासबाजी : संयोग से पिछले एक साल में कई तरह की सियासी कयासबाजी भी होती रही लेकिन नीतीश के नेतृत्व में बिहार की महागठबंधन सरकार बनी हुई है. इतना ही नहीं एनडीए से अलग होकर नीतीश ने भाजपा को वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में हराने का जो संकल्प लिया है उस दिशा में भी वे लगातार आगे बढ़ रहे हैं. बिहार में महागठबंधन की सरकार ने इस एक साल में कुछ मामलों में मामूली उतार चढ़ाव देखा है लेकिन इसे लेकर राजद, जदयू, कांग्रेस या वाम दलों के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कोई बड़ा टकराव देखने को मिला है ऐसा नहीं है. हालांकि इस एक वर्ष में सबकुछ नीतीश के मन लायक रहा हो ऐसा भी नहीं है. राजद के सुधाकर सिंह ने मंत्री बनने के बाद से ही नीतीश कुमार की नीतियों की खुली आलोचना की और अंत में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उनके पहले क़ानूनी विवाद में फंसे राजद के कार्तिकेय सिंह उर्फ़ मास्टर को भी मंत्री पद छोड़ना पड़ा. संयोग राजद की ओर से खाली हुए दोनों मंत्री पद आज तक नहीं भरे गए हैं जो दिखाता ही कुछ तो भीतरी द्वंद्व है. 

राजद पर कसी नकेल : वहीं राजद एमएलसी सुनील सिंह भी हालिया दिनों में कई ऐसे बयान दे चुके हैं जिससे उनके और नीतीश के रिश्तों को लेकर पेचीदगियां स्पष्ट दिखती हैं. वहीं पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का महागठबंधन से अलग होकर एनडीए में जाना, उनके बेटे का नीतीश मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना भी नीतीश सरकार के एक साल के उलझनों की बड़ी घटना रही. इतना ही नहीं नीतीश कुमार ने राजद कोटे के मंत्रियों वाले विभाग से हुए ट्रांसफर-पोस्टिंग पर रोक लगाकर नए किस्म की अटकलों को जन्म दिया. वहीं हालिया समय में आईएएस केके पाठक का शिक्षा विभाग के मंत्री चंद्रशेखर से टकराव भी जगजाहिर हुआ है. बावजूद इसके नीतीश सरकार डगमगा रही हो ऐसी स्थिति भी नहीं दिखती. वहीं नीतीश ने जिस मुहीम के तहत एनडीए से अलग होने का फैसला लिया था उस दिशा में वे लगातार बढ़ते दिख रहे हैं. यानी भाजपा को हराने की योजना. 

गलत साबित हुई भाजपा की भविष्यवाणी : नीतीश कुमार कई बार कह चुके हैं कि जो 2014 में आए है वे 2024 में नहीं आएंगे. यानी केंद्र की मोदी सरकार की अगले वर्ष के लोकसभा चुनाव में सत्ता में वापसी नहीं होगी. नीतीश कुमार ने अपनी इस भविष्यवाणी को साकार करने के लिए लगातार पहल भी की है. उन्होंने विपक्षी दलों को एकजुट करने की पहल की. कई राजनीतिक दलों के नेताओं से मिले. और इसमें उन्हें बड़ी सफलता भी मिली है. शुरू शुरू में जब नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने की बातें करते थे तो भाजपा का तंज होता कि यह संभव ही नहीं है कि विपक्ष एक साथ आ जाए. भाजपा ने इसे तराजू में मेढ़क तोलने वाला काम कहा था. लेकिन नीतीश ने दिखा दिया कि वे इस हुनर में माहिर हैं.

नीतीश के आमने मोदी ने बदली रणनीति : विपक्षी एकजुटता की पहल में न सिर्फ नीतीश कुमार को सफलता मिली बल्कि पटना की बैठक के बाद 18 जुलाई को बेंगलुरु में हुई बैठक में नीतीश की मुहिम में 26 दल जुड़ गए. संसद में मौजूदा मानसून सत्र में दिल्ली सेवा विधेयक हो या फिर मणिपुर के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरना. तमाम जगहों पर विपक्ष एकजुट दिखा. ऐसे में नीतीश कुमार की सरकार ने जहाँ बिहार में एक साल पूरे कर लिए हैं वहीं भाजपा को हराने की अपनी मुहिम में भी सधे कदमों से आगे बढ़ते दिख रहे हैं. यहां तक कि रजनीतिक जानकार भी मानते हैं कि यह नीतीश की विपक्षी एकजुटता की पहल का ही परिणाम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वर्षों बाद एनडीए की बैठक बुलाने की सुध आई. ऐसे में इसे नीतीश के लिए एक बड़ी सफलता कही जा सकती है. हालांकि नीतीश कुमार के लिए असली चुनौतियाँ अभी शेष हैं. उन्हें अगले लोकसभा चुनाव तक कई मोर्चों पर विपक्ष को एकजुट रखने में अलग अलग चुनौतियाँ झेलनी है जबकि बिहार में खुद को अन्य घटक दलों की तुलना में बीस रखने की चुनौती है. 

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