PATNA : क्या कोई राज्य दो दशक में इतना बदल सकता है कि जिस भाषा पर गर्व करते थे, अब वह भाषा उन्हें पराई लगने लगी है। भोजपुरी और मगही को जिस तरह से झारखंड के दो शहरों के क्षेत्रीय भाषाओं से हटाया गया है। उसके बाद बिहार को लेकर कांग्रेस की सोच स्पष्ट रूप से सामने आ गया है।
पहले पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा बिहार और यूपी के लोगों को पंजाब में आने से रोकने की बात कही जाती है। इस दौरान प्रियंका गांधी उनकी बातों को सुनकर ऐसा खिल्ली उड़ाती हैं, जैसे वह कहना चाहती हैं कि वह बिहार के लोगों को लेकर किस प्रकार की सोच रखती हैं। यह मामला अभी थमा भी नहीं था कि झारखंड में भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता समाप्त करने की खबर सामने आ गई। यहां दो शहरों धनबाद और बोकारो में इन दोनों भाषाओं की मान्यता को यह कहकर समाप्त करवा दिया गया कि यह भाषा यहां अब बोलचाल में प्रयोग नहीं होता है।
कांग्रेस के दबाव में लिया फैसला
झारखंड सरकार के इस फैसले को लेकर जो बातें सामने आई है, उसमें कांग्रेस की भूमिका सामने आई है। धिसूचना जारी होने से पहले शुक्रवार को कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर और विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिल कर धनबाद-बोकारो में क्षेत्रीय भाषा की सूची से भोजपुरी और मगही को हटाने का आग्रह किया था. इन्होंने कहा कि क्षेत्रीय भाषा को लेकर पूर्व स्थिति बहाल की जाये. पहले से धनबाद और बोकारो की क्षेत्रीय भाषा की सूची में भोजपुरी और मगही शामिल नहीं थी। इसलिए इस बार कोई नयी व्यवस्था लागू करने की आवश्यकता नहीं है. जिन जिलों के गांवों में ये भाषाएं नहीं बोली जाती, वहां इन्हें सूची में रखने की जरूरत नहीं है। जिसके बाद हेमंत सोरेन सरकार ने उनकी मांगों को मंजूरी प्रदान कर दी।
21 साल में कैसे बदल गई भाषा
झारखंड की स्थापना से पहले बोकारो और धनबाद बिहार का हिस्सा थे। दोनों शहरों में भी मगही और भोजपुरी उसी तरह से बोली जाती थी, जैसा कि बिहार के सभी जिलों में बोली जाती है। अब झारखंड के बनने के बाद आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह भाषा इन दोनों शहरों से खत्म मान लिया गया। साथ ही झारखंड की शिक्षा व्यवस्था में उर्दू को लेकर कब पढ़ाई कराई गई कि यहां के सभी जिलों में बोलचाल की भाषा बन गई।