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बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं का है बुरा हाल, खटिया पर लादकर मरीज को ले जाते हैं अस्पताल

बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं का है बुरा हाल, खटिया पर लादकर मरीज को ले जाते हैं अस्पताल

ARA : बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। यहां पर अभी भी एंबुलेंस की जगह खटिया पर मरीज को लादकर अस्पताल ले जाया जाता है। आरा के सुरौंधा गांव की यह तस्वीर सूबे के विकास के मुंह पर करारा तमाचा है। कोइलवर प्रखंड के अंतर्गत आनेवाला यह गांव बुनियादी सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है। यहां न तो बिजली है और न ही पीने के लिए पानी। अस्पताल का तो दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है। अगर कोई बीमार पड़ जाए तो समझिए उसका बचना मुश्किल। बड़ी मुश्किल से किसी मरीज को चार लोग खटिया पर लादकर नाव के सहारे शहर ले जाते हैं, फिर उसका इलाज होता है। यह विकास की कैसी तस्वीर है ? 

विकास को तरस रहा सुरौंधा गांव

एक तरफ लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हेल्थ को लेकर कई तरह की स्कीम की घोषणा करते हैं तो वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सूबे के स्वास्थ्य को लेकर अपनी सरकारी की पीठ थपथपाते हैं लेकिन यह तस्वीर पीएम और सीएम दोनों को मुंह चिढ़ा रही है। यह चीख-चीखकर कह रही है कि आज भी सरकारी स्तर पर खासकर गांवों में स्वास्थ्य सुविधाएं नदारद हैं। चारों ओर पानी से घिरा आरा का सुरौंधा गांव विकास से कोसों दूर दिखता है। लोग छोटी-छोटी चीजों के लिए बाहर जाने को विवश हैं। 

विकास को मुंह चिढ़ाती सुरौंधा गांव की इस तस्वीर को देखकर मन यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि बड़ी-बड़ी बातें करना कितना आसान है और उसे धरातल पर उतारना कितना मुश्किल। आखिर सरकार ऐसे गांवों की सुध कब लेगी ? क्या उस इलाके के जनप्रतिनिधियों को इस बात की खबर नहीं या फिर केवल चुनाव के वक्त उन्हें गांवों की याद सताती है ! 

1000 लोग रहते हैं यहां

सुरौंधा गांव की आबादी तकरीबन 1000 है। यह गांव सोन नदी से चारों तरफ से घिरा हुआ है। सोन नदी के जलस्तर में तेजी से वृद्धि हो रही है इसलिए लोगों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। यहां रहनेवाले लोगों को दैनिक सुविधाओं के लिए नाव के सहारे कोइलवर आना पड़ता है या फिर जिला मुख्यालय आरा जाना पड़ता है। 

गांव में रहनेवाले सुनेश्वर प्रसाद की पत्नी विस्मातो देवी कई दिनों से बीमार है और लगातार उसकी तबियत में गिरावट आ रही है। उसे इलाज के लिए बाहर ले जाना पड़ता है। रोजाना बुजुर्ग महिला को घाट के किनारे नाव के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। लेकिन सरकारी नाव तो छोड़िए प्राइवेट नाव भी जल्दी नहीं मिलता। पीड़ित के बेटे सुकमा प्रसाद ने बताया कि मां की इलाज के खातिर काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। 

सरकारी दावा है कि यहां के लोगों को आने-जाने के लिए 14 नाव दिए गये हैं लेकिन यह महज आंकड़ा ही है इसके सिवाए कुछ नहीं। हकीकत में प्राइवेट नावों के भरोसे ही गांववाले अपना काम कर पाते हैं।  

 



 

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