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कारगिल युद्ध की कहानी, जब भारतीय जांबाजों ने पलट दी थी हारी हुई बाजी

कारगिल युद्ध की कहानी, जब भारतीय जांबाजों ने पलट दी थी हारी हुई बाजी

Desk: 21 साल पहले कारगिल की पहाड़ियों पर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई की शुरुआत तब हुई थी जब पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर घुसपैठ करके अपने ठिकाने बना लिए थे.

8 मई, 1999 पाकिस्तान की 6 नॉरदर्न लाइट इंफैंट्री के कैप्टेन इफ्तेखार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आजम चौकी पर बैठे हुए थे. उन्होंने देखा कि कुछ भारतीय चरवाहे कुछ दूरी पर अपने मवेशियों को चरा रहे थे. पाकिस्तानी सैनिकों ने आपस में सलाह की कि क्या इन चरवाहों को बंदी बना लिया जाए? किसी ने कहा कि अगर उन्हें बंदी बनाया जाता है, तो वो उनका राशन खा जाएंगे जो कि खुद उनके लिए भी काफी नहीं है. उन्हें वापस जाने दिया गया. करीब डेढ़ घंटे बाद ये चरवाहे भारतीय सेना के 6-7 जवानों के साथ वहां वापस लौटे. इतना नीचे कि कैप्टेन इफ्तेखार को पायलट का बैज तक साफ दिखाई दे रहा था. ये पहला मौका था जब भारतीय सैनिकों को भनक पड़ी कि बहुत सारे पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की पहाड़ियों की ऊंचाइयों पर कब्जा जमा लिया है. भारतीय सैनिकों ने अपनी दूरबीनों से इलाके का मुआयना किया और वापस चले गए. करीब 2 बजे वहां एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया. 

कारगिल पर एक मशहूर किताब 'विटनेस टू ब्लंडर- कारगिल स्टोरी अनफोल्ड्स' लिखने वाले पाकिस्तानी सेना के रिटायर्ड कर्नल अशफाक हुसैन ने कहानी का जिक्र करते हुए कहते हैं. मेरी खुद कैप्टेन इफ्तेखार से बात हुई है. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन फिर भारतीय सेना के लामा हेलिकॉप्टर वहां पहुंचे और उन्होंने आजम, तारिक और तशफीन चौकियों पर जम कर गोलियां चलाईं. कैप्टेन इफ्तेखार ने बटालियन मुख्यालय से भारतीय हेलिकॉप्टरों पर गोली चलाने की अनुमति मांगी लेकिन उन्हें ये इजाजत नहीं दी गई, क्योंकि इससे भारतीयों के लिए 'सरप्राइज एलिमेंट' खत्म हो जाएगा. 

उधर भारतीय सैनिक अधिकारियों को ये तो आभास हो गया कि पाकिस्तान की तरफ से भारतीय क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ हुई है लेकिन उन्होंने समझा कि इसे वो अपने स्तर पर सुलझा लेंगे. इसलिए उन्होंने इसे राजनीतिक नेतृत्व को बताने की जरूरत नहीं समझी. कभी रक्षा मामलों के संवाददाता रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह याद करते हैं. मेरे एक मित्र उस समय सेना मुख्यालय में काम किया करते थे. फोन करके कहा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. मैं उनके घर गया. उन्होंने मुझे बताया कि सीमा पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि पूरी पलटन को हेलिकॉप्टर के माध्यम से किसी मुश्किल जगह पर भेजा गया है किसी घुसपैठ से निपटने के लिए. सुबह मैंने पापा को उनको सारी बात बताई उन्होंने तब के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को फोन किया. वे अगले दिन रूस जाने वाले थे. उन्होंने अपनी यात्रा रद्द की और इस सरकार को घुसपैठ के बारे में पहली बार पता चला. दिलचस्प बात ये थी कि उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलैंड और चेक गणराज्य की यात्रा पर गए हुए थे. वहां उनको इसकी पहली खबर सैनिक अधिकारियों से नहीं, बल्कि वहां के भारतीय राजदूत के जरिए मिली. सवाल उठता है कि लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के इस तरह गुपचुप तरीके से कारगिल की पहाड़ियों पर जा बैठने का मकसद क्या था?


एक अखबार के एडिटर कहते हैं मकसद यही था कि भारत की सुदूर उत्तर की जो टिप है जहां पर सियाचिन ग्लेशियर की लाइफ लाइन एनएच 1 डी को किसी तरह काट कर उस पर नियंत्रण किया जाए. वो उन पहाड़ियों पर आना चाहते थे जहां से वो लद्दाख की ओर जाने वाली रसद के जाने वाले काफिलों की आवाजाही को रोक दें और भारत को मजबूर होकर सियाचिन छोड़ना पड़े. एडिटर ने कहा कि मुशर्रफ को ये बात बहुत बुरी लगी थी कि भारत ने 1984 में सियाचिन पर कब्जा कर लिया था. उस समय वो पाकिस्तान की कमांडो फोर्स में मेजर हुआ करते थे. उन्होंने कई बार उस जगह को खाली करवाने की कोशिश की थी लेकिन वो सफल नहीं हो पाए थे. जब भारतीय नेतृत्व को मामले की गंभीरता का पता चला तो उनके पैरों तले जमीन निकल गई. भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन मिलाया. पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा 'नीदर अ हॉक नॉर अ डव' में लिखते हैं, "वाजपेयी ने शरीफ से शिकायत की कि आपने मेरे साथ बहुत बुरा सलूक किया है. एक तरफ आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा कर रहे थे. नवाज शरीफ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. मैं परवेज मुशर्रफ से बात कर आपको वापस फोन मिलाता हूं. तभी वाजपेयी ने कहा आप एक साहब से बात करें जो मेरे बगल में बैठे हुए हैं. नवाज शरीफ उस समय सकते में आ गए जब उन्होंने फोन पर मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार की आवाज सुनी. दिलीप कुमार ने उनसे कहा, "मियां साहब, हमें आपसे इसकी उम्मीद नहीं थी क्योंकि आपने हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की बात की है. मैं आपको बता दूं कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, भारतीय मुसलमान बुरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उनके लिए अपने घर से बाहर निकलना भी मुहाल हो जाता है. 

सबसे ताज्जुब की बात थी कि भारतीय खुफिया एजेंसियों को इतने बड़े ऑपरेशन की हवा तक नहीं लगी. भारत के पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त और बाद में बनाई गई कारगिल जांच समिति के सदस्य सतीश चंद्रा बताते हैं रॉ इसको बिल्कुल भी भांप नहीं पाया. पर सवाल खड़ा होता है कि क्या वो इसे भांप सकते थे? पाकिस्तानियों ने कोई अतिरिक्त बल नहीं मंगवाया. रॉ को इसका पता तब चलता जब पाकिस्तानी अपने 'फॉरमेशंस' को आगे तैनाती के लिए बढ़ाते. इस स्थिति का जिस तरह से भारतीय सेना ने सामना किया उसकी कई हल्कों में आलोचना हुई. पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल हरचरणजीत सिंह पनाग जो बाद में कारगिल में तैनात भी रहे, वे कहते हैं, मैं कहूंगा कि ये पाकिस्तानियों का बहुत जबरदस्त प्लान था कि उन्होंने आगे बढ़कर खाली पड़े बहुत बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया. वो लेह कारगिल सड़क पर पूरी तरह से हावी हो गए. ये उनकी बहुत बड़ी कामयाबी थी.


लेफ्टिनेंट पनाग कहते हैं 3 मई से लेकर जून के पहले हफ्ते तक हमारी सेना का प्रदर्शन 'बिलो पार' यानी सामान्य से नीचे था. मैं तो यहां तक कहूंगा कि पहले एक महीने हमारा प्रदर्शन शर्मनाक था. उसके बाद जब 8वीं डिवीजन ने चार्ज लिया और हमें इस बात का एहसास होने लगा कि उस इलाके में कैसे काम करना है, तब जाकर हालात सुधरना शुरू हुए. निश्चित रूप से ये बहुत मुश्किल ऑपरेशन था क्योंकि एक तो पहाड़ियों में आप नीचे थे और वो ऊंचाइयों पर थे. पनाग हालत को कुछ इस तरह समझाते हैं, ये उसी तरह हुआ कि आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ है और आप नीचे से चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश कर रहे हो. दूसरी दिक्कत थी उस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी. तीसरी बात ये थी कि आक्रामक पर्वतीय लड़ाई में हमारी ट्रेनिंग भी कमजोर थी. जून का दूसरा हफ्ता खत्म होते होते चीजें भारतीय सेना के नियंत्रण में आने लगी थीं. मैंने उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक से पूछा कि इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ क्या था? मलिक का जवाब था तोलोलिंग पर जीत. वो पहला हमला था जिसे हमने को-ऑरडिनेट किया था. ये बहुत बड़ी सफलता थी हमारी. चार-पांच दिन तक ये लड़ाई चली. ये लड़ाई इतनी नजदीक से लड़ी गई कि दोनों तरफ के सैनिक एक दूसरे को गालियां दे रहे थे और वो दोनों पक्षों के सैनिकों को सुनाई भी दे रही थी. जनरल मलिक कहते हैं हमें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. हमारी बहुत कैजुएल्टीज हुईं. छह दिनों तक हमें भी घबराहट-सी थी कि क्या होने जा रहा है लेकिन जब वहां जीत मिली तो हमें अपने सैनिकों और अफसरों पर भरोसा हो गया कि हम इन्हें काबू में कर लेंगे. 

ये लड़ाई करीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी गई जहां करीब 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के करीब 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक मारे गए और 1363 जवान आहत हुए. एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं फौज में एक कहावत होती है कि 'माउंटेन ईट्स ट्रूप्स यानी पहाड़ सेना को खा जाते हैं. अगर जमीन पर लड़ाई हो रही हो तो आक्रामक फौज को रक्षक फौज का कम से कम तीन गुना होना चाहिए. पर पहाड़ों में ये संख्या कम से कम नौ गुनी और कारगिल में तो सत्ताइस गुनी होनी चाहिए. मतलब अगर वहां दुश्मन का एक जवान बैठा हुआ है तो उसको हटाने के लिए आपको 27 जवान भेजने होंगे. भारत ने पहले उन्हें हटाने के लिए पूरी डिवीजन लगाई और फिर अतिरिक्त बटालियंस को बहुत कम नोटिस पर इस अभियान में झोंका गया.



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