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साहित्य और पत्रकारिका का अटूट संबंध -अकबर इलाहाबादी

साहित्य और पत्रकारिका का अटूट संबंध -अकबर इलाहाबादी

News4Nation Desk: साहित्य और पत्रकारिका का अटूट संबंध है, या यों भी कह सकते हैं कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पत्रकारिता के विविध रूपों में से एक साहित्यिक पत्रकारिता भी है। साहित्यिक पत्रकारिता में वे साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं, जिनमें साहित्य की विविध विधाओं का प्रकाशन, नवीन पुस्तकों का सृजन, पुस्तकों की आलोचना, साहित्यिक संगोष्ठियाँ, पुस्तक प्रदर्शनी, लोकार्पण, पुरस्कार, कला एवं साहित्य से जुड़े समाचार आदि समाहित रहते हैं। भारत में प्रथम प्रकाशित पत्र 1780 ई. में ‘हिक्कीज गजट’ था जो कि अंग्रेजी भाषा में था। भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत 30 मई 1826 ई. में पं. जुगलकिशोर के अथक प्रयासों के द्वारा साप्ताहिक पत्र से होती है। लेकिन हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता का प्रारंभ भारतेंदु युग की 1868 ई. में प्रकाशित पत्रिका ‘कविवचन सुधा’ से माना जाता है।

भारतेंदु-युग से लेकर अब तक अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं मैदान में उतर चुकी हैं. कुछ परिस्थितिवश उसी धूल भरे मैदान में ओझल हो गईं और कुछ पत्रिकाएं उसी मैदान में संघर्ष करती हुई बदलते वक्त की करवटों के साथ-साथ पाठकों की बदलती रुचि के साथ अपना तालमेल बैठाया और आज उत्कृष्टतम स्थान पर हैं। इन पत्रिकाओं ने समाज के अक्स को खुद में उतारते हुए, समाज की दुखती नब्ज से लेकर दहकते मुद्दों को नवीन दृष्टिकोण और नित नूतन प्रयोगों के माध्यम से अपने पाठकों के सामने पेश किया। इनमें प्रमुख हैंः ‘कविवचन सुधा’, ‘सुधावर्षण’, ‘हिंदी प्रदीप’, ‘सरस्वती’, ‘हंस’, ‘इंदु’, ‘चाँद’, ‘नया प्रतीक’, ‘कहानी’, ‘माया’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘सारिका’, ‘कथादेश’, ‘यू.एस.एम.’, ‘तद्भव’, ‘प्राची’, ‘वर्तमान साहित्य’ और ‘आलोचना’ आदि हैं। इंटरनेट, इलेक्ट्रानिक उपकरणों, अंग्रेजी वर्चस्व, न्यू-मीडिया, सोशल-मीडिया के दौर में ज्ञानवर्धन के अनेक द्वार खोले हैं। आज पत्र-पत्रिकाएं खरीदकर पढ़ना मजबूरी नहीं रह गई है। इस आधुनिकीकरण हाईटेक युग ने पत्रकारिता को ठगा नहीं है बल्कि उसे प्रोत्साहन दिया है। इंटरनेट ने ही ई-पत्रकारिता को जन्म दिया और उसे बड़ा व्यापक प्लेटफार्म भी उपलब्ध कराया है और जिसमें बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या और इनके पाठकों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. शायद यही समय की माँग है।

साहित्यिक पत्रकारिता ने भारत के इतिहास को सुनहरा बनाने में अपना विशेष योगदान दिया है। सालों से साहित्यिक पत्रकारिता द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आजादी दिलाने तक, हिंदी भाषा का मानकीकरण और उसका प्रचार-प्रसार, साहित्य की विविध विधाओं के संवर्धन और संरक्षण, नए रचनाकारों के जन्मदात्री, हिंदी को विश्वविद्यालयों में स्थान दिलाना, स्वाधीन चेतना का संचार, अधिकारों की लड़ाई आदि अहम् कार्यों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। डॉ. नगेंद्र जी के शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि अभी तक हिंदी को विश्वविद्यालय में स्थान नहीं मिला था। इसीलिए उसे ज्ञान के साहित्य का माध्यम बनाने की दिशा में जो कुछ किया गया, वह इन संस्थाओं और सरस्वती जैसी कुछ पत्रिकाओं द्वारा ही किया गया। साहित्य का स्वर क्रमशः गम्भीर हुआ और उसमें दायित्वबोध जागा। साहित्य को शिष्ट समाज में प्रवेश पाने के योग्य समझा जाने लगा और सब मिलाकर हिंदी को व्यापक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।

आज भी साहित्यिक पत्रकारिता की प्रासंगिकता कई मायनों में बरकरार है। आज भी विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता का पाठ्यक्रम सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। विश्वविद्यालयों में अध्यापन-कार्य के लिए प्रकाशन अंकों की अनिवार्यता भी इसकी प्रासंगिकता का पुख्ता सबूत है। वेब-पत्रिकाओं के पाठकों और सदस्यों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है. भले ही इसके माध्यम का स्वरूप बदल गया हो, प्रिंट से डिजिटल हो गया हो। आज भी छापेखानों पर ताला नहीं जड़ा गया है, बल्कि अनेक प्रकाशन संस्थानों की संख्या बढ़ी है।

इसकी प्रासंगिकता को बरकरार रखने के लिए इसको आर्थिक रूप से भी मजबूती प्रदान करनी होगी। किसी भी संस्था को निरंतर अबाध गति से आगे बढ़ाने के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है, यही कटु सचाई है। धनाभाव के कारण ही ‘उद्दंत-मार्तण्ड’ 11 दिसम्बर 1827 ई. में ही बंद हो गया। साहित्यिक पत्रकारिता को घूसखोरी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कूटनीतियों से बचाना होगा; ताकि कलम के सिपाहियों की कलम दम न तोड़ जाए, इसके लिए संपादक और पत्रकारों को अपनी सम्पूर्ण निष्ठा, परिश्रम, बिना पक्षपात, ईमानदारी और निडरता से कार्य करना होगा जो आज के गिने चुने ही संपादकों एवं पत्रकारों में ही रह गई है। डॉ. नगेंद्र जी इसकी और भी संकेत करते हैं. ‘परिणाम की दृष्टि से तो स्वतंत्रता के बाद हमारी पत्र-पत्रिकाओं ने प्रगति की है, किंतु गुणात्मक दृष्टि से उनका ह्रास हुआ है। पराड़कर जी, सप्रे जी, गर्दे जी, श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि पत्रकारों का उत्कर्ष, लगन और सेवाभाव आज के संपादकों में कहाँ दृष्टिगोचर होता है।’

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