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मनोज सिन्हा को सक्रिय राजनीति से अलग करने से समर्थकों में भारी आक्रोश, उप राज्यपाल बनाने का निर्णय BJP के लिए कहीं पड़ न जाये भारी

मनोज सिन्हा को सक्रिय राजनीति से अलग करने से समर्थकों में भारी आक्रोश, उप राज्यपाल बनाने का निर्णय BJP के लिए कहीं पड़ न जाये भारी

Patna: पूर्वांचल के साथ बिहार में भाजपा का बड़ा चेहरा मानेजाने वाले मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाए जाने का दांव कहीं पार्टी नेतृत्व को उल्टा न पड़ जाए. महज 61 साल की उम्र में सक्रिय राजनीति से उन्हें दूर करने की कोशिश से समर्थकों में खासी नाराजगी देखी जा रही है. सोशल मीडिया पर इससे जुड़े पोस्ट भी वायरल हो रहे हैं. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कॉलेज के समय से ही संघ और भाजपा से जुड़े रहने वाले मनोज सिन्हा को सक्रिय राजनीति से दूर करना भाजपा के लिये फायदेमंद नहीं होगा. तीन दफे गाजीपुर से सांसद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार में रेल राज्यमंत्री के साथ संचार मंत्री के स्वतंत्र प्रभार को बखूबी निभानेवाले मनोज सिन्हा का व्यवहार एक बेहद मिलनसार और राजनीतिक तौर पर बेहद प्रभावशाली इंसान माने जाते रहे हैं. कहा जाता है कि उनके दुश्मनों की संख्या दोस्तों की तादाद के आगे कुछ भी नहीं है. मुसलमानों की बड़ी आबादीवाले गाजीपुर लोकसभा में भाजपा का परचम लहरानेवाले मनोज सिन्हा 2019  का चुनाव कैसे हारे यह किसी से छुपा नहीं है. उत्तर प्रदेश के कुछ वरीय नेताओं ने सिन्हा को हराने के खेल में खूब दिलचस्पी ली थी.

जानकारों का मानना है कि देश के सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य में शीर्ष पर बैठे कुछ लोगों ने ही उन्हें हराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. अब जरा इस वाकये पर भी नजर डाल लीजिये कि कैसे मनोज सिन्हा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होते होते रह गए थे. प्रधानमंत्री मोदी और तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की सहमति के बाद मनोज सिन्हा उत्तर प्रदेश के सीएम का शपथ लेने के लिये लखनऊ पहुंच चुके थे. बनारस में जब बाबा विश्वनाथ की पूजा कर निकले तो इन्हें बताया गया कि आप वापस लौट जाएं. इस खेल के पीछे कौन था ? राजनीतिक हल्के में यह सबको पता है.  इसके बावजूद मनोज सिन्हा ने एक शब्द किसी नेता के खिलाफ नहीं बोला. पूर्वांचल की राजनीति बनारस से लिखी जाती है. बनारस से ही राजनीति की शुरूआत करनेवाले मनोज सिन्हा का खासा प्रभाव वहां रहा है. गाजीपुर, बलिया, बनारस के साथ आसपास के कई जिलों में उनके प्रशंसकों की भरमार है. बता दें कि मनोज सिन्हा का ससुराल बिहार में है और बिहार भाजपाई वोट बैंक के अग्रेसिव मतदाताओं का जुड़ाव इनसे काफी है. लोगों के बीच यह चर्चा का विषय था कि मनोज सिंह भूपेंद्र यादव की जगह बिहार के प्रभारी बनाये जाने वाले हैं. भूमिहार ब्राह्मण और ब्राह्मण मतदाता जो भाजपा की बुनियाद को आबाद करने में बड़ी भूमिका अदा कर चुके हैं और आज भी चुनाव में सबसे ज्यादा अग्रेसिव भूमिका में रहते हैं उनमें कहीं कहीं न कहीं निराशा है. इतना ही नहीं मनोज सिन्हा जैसे राजनीतिक व्यक्तित्व का प्रभाव करीब करीब सारे जातियों पर है. इन सबका उत्साह काफूर हो चुका है. मनोज सिन्हा जैसे धाकड़ और सक्रिय राजनीतिज्ञ को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाकर सक्रिय राजनीति से अलग करना उनके प्रशंसकों को नहीं पच रहा.  जानकार बताते हैं कि मनोज सिन्हा का रिश्ता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से काफी पुराना है. ऐसे में समर्थकों को उम्मीद थी कि उन्हें राज्यसभा के जरिए फिर केन्द्र सरकार में मौका दिया जाता या फिर पार्टी संगठन में अहम जिम्मेदारी. समर्थकों का तर्क भी वाजिब है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पुत्र और सपाई नेता रहे नीरज शेखर को भाजपा राज्यसभा भेज सकती है तो मनोज सिन्हा जैसे पार्टी के कर्तव्यनिष्ठ को क्यों नहीं.

बिहार की राजनीति पर भी पड़ेगा असर
आज की तारीख में भाजपा में भूमिहार ब्राह्मण जाति के बड़े नेताओं में मनोज सिन्हा पहले पायदान पर माने जाते थे. शायद अब नहीं (उपराज्यपाल बनाए जाने के बाद)। कहीं इसका खामियाजा पार्टी को आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में न उठाना पड़े. जाति विशेष में बढ़ रही नाराजगी से जिस तरह उत्तर प्रदेश में हालात दिनों दिन पार्टी नेतृत्व के लिए मुश्किल होते जा रहे हैं वैसे में बिहार में भूमिहार वोटर भाजपा-जदयू से दूरी बना सकते हैं.  प्रदेश संगठन में भी किसी बड़े भूमिहार ब्राह्मण के नेताओं की भागीदारी न के बराबर है. गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के दौरान भी जब बिहार बीजेपी के कद्दावर एमएलसी सच्चिदानंद राय ने पारम्परिक मतदाताओं की उपेक्षा को लेकर मोर्चाबंदी की थी तो भाजपा नेतृत्व के द्वारा त्वरित एक्शन लेते हुए उन्हें मनाने के लिये विशेष विमान से एक राज्य की राजधानी में राष्ट्रीय अध्यक्ष से मिलवाया गया था. फिर उनकी मुलाकात दिल्ली में हुई जिसमें पारम्परिक मतदाताओं के नेताओं के मान सम्मान और पद देने की बात हुई.


जानकार बताते हैं कि इसमें भी एक बड़ा खेल खेला गया और बगैर प्रभाव वाले नेताओं को पद दे दिया गया ताकि वे सही ढंग से आवाज भी नहीं उठा सकें. इसी तरह हाल में मगध से आने वाले बीजेपी के कद्दावर नेता कृष्ण कुमार सिंह को भी दुबारा एमएलसी पद के योग्य नहीं समझा गया. नाराज कृष्ण कुमार सिंह ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देकर अपने मंशा जाहिर कर दी. उनके समर्थकों का विरोध आज भी जारी है. अब सवाल उठता है कि आखिरकार इस तरह के फैसलों  का  फायदा महागठबंधन को तो नहीं मिल जाएगा. वैसे भी राजद को लेकर भूमिहार समाज में बड़ा बदलाव देखा जा रहा है. कभी लालू प्रसाद के खिलाफ भूमिहारों को आगे कर तत्कालीन विपक्षी पार्टियों (भाजपा-जदयू) ने अपनी लड़ाई लड़ी थी. पर सत्ता में आते ही उनके योगदान को भूला दिया गया. आज की तारीख में जहां भूमिहार इस बात को समझ चुके हैं वहीं राजद की भी नजर इस वोट बैंक पर है. अमरेन्द्रधारी सिंह को राज्यसभा भेजकर राजद ने इसका संकेत दे दिया है. चर्चा है कि महागठबंधन में राजद कोटे से भूमिहार जाति के कई उम्मीदवार को मैदान में उतरा जा सकता है. हाल ही में बिहार के पहले मुख्यमंत्री के पोते अनिल शंकर सिंह ने राजद के दामन थामा है. उनका बरबीघा से चुनाव लड़ना तय माना जा रहा है. इन परिस्थितियों में सबसे अगले पायदान के नेता मनोज सिन्हा को उपराज्यपाल बनाकर  सक्रिय राजनीति से दूर करने  और बिहार में किसी भूमिहार  नेता को पार्टी संगठन में अहम जिम्मेदारी नहीं दिए जाने से भूमिहारों में नाराजगी बढ़ती जा रही है. ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भूमिहार वोटर आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में किसी पार्टी के परंपरागत वोटर बने रहने की बजाय पाला बदल लें या फिर एनडीए के पक्ष में एकमुश्त जाने वाला वोट बिखर जाए. 

कौशलेन्द्र प्रियदर्शी की कलम से...

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