बिहार उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश उत्तराखंड झारखंड छत्तीसगढ़ राजस्थान पंजाब हरियाणा हिमाचल प्रदेश दिल्ली पश्चिम बंगाल

LATEST NEWS

कॉलेज लाइफ में नीतीश कुमार की रईसी,फिल्में देखना,अच्छे कपड़े पहनना,रेस्तरां जाना,यह ठाठ सब के बस की बात नहीं थी...आखिर कैसे?

कॉलेज लाइफ में नीतीश कुमार की रईसी,फिल्में देखना,अच्छे कपड़े पहनना,रेस्तरां जाना,यह ठाठ सब के बस की बात नहीं थी...आखिर कैसे?

PATNA: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कॉलेज लाइफ में अपने दोस्तों की तरह ही जिंदगी का रस लेते थे, लेकिन....... नीतीश कुमार के दोस्त बताते हैं कि हम सब मिलकर फिल्में देखा करते थे। पटना में इधर-उधर घूमते, छोटे से लेकर मशहूर रेस्तरां में खाना खाते और चांदनी रात में एक नाव लेकर गंगा में सैर पर निकल जाते . माता-पिता से हमें जो मासिक खर्च मिलता वह दूसरे या तीसरे सप्ताह तक पूरा सूख जाता था और फिर हम अपने दोस्तों में उधार देने वालों की खोज करने लग जाते थे।

हमारे बीच नीतीश सबसे अधिक अमीर थे

कॉलेज जमाने के दोस्त कहते हैं कि हमारे बीच नीतीश सबसे अधिक अमीर थे ।उन्हें हर माह 150 रुपये अपने पिता से मिलते थे और 150 रुपये छात्रवृत्ति मिलती थी। स्कॉलरशिप यानि छात्रवृत्ति की राशि  नीतीश का और हमारा ठाठ-बाट बनाए रखती। अच्छे-अच्छे कपड़े पहनना,रिक्शा में शान की सवारी करना, फिल्में देखने जाना, समोसे और डोसा खाने जाना, किताबें और पत्रिकाएं खरीदना यह सब ऐसे रईसी ठाट थे, जिनका खर्च उठाना हर एक के वश में नहीं था।

इन सबके बावजूद नीतीश खर्चीला नहीं थे

मौज-मस्ती के बावजूद नीतीश अपव्ययी नहीं थे. वे बहुत सोच समझकर खर्च करते थे, जबकि हम लोग बिना सोचे-समझे पूरा जेब खर्च उड़ा देते थे. वे कोई भी चीज बस यूं ही खरीदने के लालच में नहीं पढ़ते थे. हमारे बीच एक नीतीश हीं थे जिन्हें कभी उधार लेने की जरूरत नहीं पड़ी।

दिन का समय कॉलेज के कैंटीन में कटता था

नीतीश के कॉलेज के जमाने के मित्र रह चुके अरुण सिन्हा अपनी किताब नीतीश कुमार और उभरता बिहार में आगे लिखते हैं कि हम कक्षाओं से रफ्फू-चक्कर हो जाते थे, घंटों गप्पे लड़ाते, दिन में हम अधिकतर कॉलेज कैंटीन में पाए जाते। शाम के समय जलपान के बाद हम हॉस्टल में एक कमरे में इकट्ठे होते जहां हम एक ड्राइंग बोर्ड का इस्तेमाल थपक देने के लिए ताल-वाद्य के रूप में करते और हिंदी फिल्मों के गीत गाया करते। हम में से अधिकतर लोग बेसुरे थे, न धुन अच्छी होती न सुर अच्छा होता। लेकिन बहुत ही बेमेल और खरखरे कोरस में भी हमें बहुत मजा आता था।

वार्षिक परीक्षाओं से लगभग 1 माह पहले मौज मस्ती से अलग रहने की सुध आती थी, और हम पढ़ाई शुरू करने के लिए अपने-अपने कमरों में सिमट जाते।शब्दों की परिभाषाएं संकल्पनाओं के अर्थ और उच्च गणितीय समस्याओं के अनगिनत बिच्छू से जूझते समय हमें पश्चाताप होता कि हम लेक्चरों में क्यों गैरहाजिर रहे?  क्यों हमने लैब में सारे टेस्ट ध्यान से नहीं किए?  जितने मन से दूसरों ने किए थे और जो अब निश्चित रूप से हम से बेहतर करने वाले थे ।यह सोच कर कि हमारा हश्र एक जैसा होने जा रहा है। हम अपना ज्ञान आपस में बांटते और एक के अंधकार को दूसरे के प्रकाश से कम करने का प्रयास करते। सहायता मांगने के लिए शिक्षकों के पास जाने का खतरा कम होता, क्योंकि वह पूछ सकते थे कि सारे साल तुम कहां थे और गंभीर-मना सहपाठियों के पास जाने से हमारी शान नीची होती थी. क्योंकि 'विस्तृत आकाश में विचरने का दम भरनेवाले हम, उन लोगों को जीविका की तलाश में जुटा 'किताबी कीड़ा' समझते थे.क्रमशः...........

साभार- नीतीश कुमार और उभरता बिहार



Suggested News