रवींद्रनाथ ने भारतवर्ष को 'महामानवसमुद्र' कहा है. विचित्र देश है यह. असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए - न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं. जिसे हम हिंदू रीति-नीति कहते है, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है. विंध्याचल में शारदीय नवरात्र में तंत्र साधना का विशेष महत्व है. तंत्र पूजा के लिए विंध्य क्षेत्र में स्थित विभिन्न मंदिरों में तांत्रिकों का जमावड़ा हो गया है. महाष्टमी की रात्रि में पूजा-अर्चना होगी. महानिशा पूजन और मां काली पूजन के लिए देश के कोने-कोने से तांत्रिकाें और देवी भक्त आने लगे हैं.मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा वह गंगा की अबाधित अनाहत धारा के समान सब कुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है. सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संसार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सबकुछ बह जाते हैं. जितना कुछ इस जीवनी-शक्ति को समर्थ बनाता है, उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक दिया जाता है. धन्य हैं मां भवानी, आपने कितनी बार मनुष्य का गर्व-खंडन किया तो अपने साधकों को मोक्ष का आशीर्वाद दिया. धर्मराज के कारागार में क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया है, विधाता के सर्वकर्तृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है. आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्मांचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है, उसमें का कितना भाग प्रभु शिव ने् कुंठनृत्य से ध्वस्थ हो जाएगा, कौन जानता है. मनुष्य की जीवन धारा फिर भी अपनी मस्तानी चाल से चलती जाएगी.कितने विध्वंस के बाद इस अपूर्व धर्म मत की सृष्टि हुई थी? नवता है मानव मां के सामने नमन करता है तो शक्ति के साथ साथ शिव को अर्पण करता है. लेकिन सहीं अर्थों में अर्पित कहां कर पाता है.
नवरात्र हैं स्वयं को भगवती के चरणों में अपने को अर्पण करने का पर्व, अपने अहंकार, अपनी क्षुद्रता को हव्य में जला देने का पर्व है दशहरा .वहीं विंध्याचल सिद्धपीठ में बड़ी संख्या में भक्त नौ दिनों तक साधना कर सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. त्रिकोण मार्ग पर विभिन्न मंदिराें में तंत्र के अनुष्ठान किए जाते हैं. अष्टभुजा, कालीखोह, तारा देवी मंदिर, काल भैरव, कंकाल काली सहित मंदिराें में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. वैसे तो विंध्य क्षेत्र में साधना का कार्य तो पूरे नवरात्र भर चलता है लेकिन महाष्टमी के दिन इसका विशेष महत्व हो जाता है. दिन की अपेक्षा सांय होते ही त्रिकोण मार्ग पर गहमा-गहमी काफी अधिक बढ़ जाती है. तंत्र साधक वाम मार्ग से उपासना कर सिद्धि प्राप्त करते हैं. विंध्याचल के भैरव कुंड रामगया घाट के श्मशान पर विराजित भगवती मां तारा देवी दस महाविद्या में प्रमुख विद्या हैं. शक्ति का शिव से मिलन गंगा के माध्यम से ही संभव हो पाता है क्योंकि पतित पावनी गंगा विंध्यधाम से मां विंध्यवासिनी के चरणों की रज को लेकर बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी की ओर प्रस्थान करती हैं. काशी में बाबा विश्वनाथ का जब जलाभिषेक होता है तो शक्ति और शिव के मिलन का दुर्लभ सुयोग होता है.
शिव का पार्थिव बनाया और पूजा करके पीपल के पेड़ के नीचे ढुलका दिया. न सोने का सिंहासन चाहिए और न सम्पुट, न वस्त्र और न स्नानार्घ्य की झंझट. मन की मौज रही बनाया, पूजन किया; चित्त ठीक रहा, रुद्री से, नहीं तो फिर केवल नम: शिवाय, कोई बंधन नहीं, कोई बाध्यता नहीं. भूति और विभूति के इस देवता को भव-विभव से इतनी निरपेक्षा, इनकी इस विषम दृष्टि से खिंच कर न जाने क्यों अन्नपूर्णा ने इनके लिए मुनियों को भी मात करने वाली कठिन तपस्या की? और 'श्मशान-यूप के साथ विवाह वेदी की सत्क्रिया' हुई, 'गजाजिन और हंसदुकूल का गठबंधन' हुआ. आज के दिन रतिपति के सखा बंसत ने दरिद्र कपाली को जगदंबा का सोहाग भरते देखा. बात यहीं तक नहीं रुकी, भोले शिव अपना आधा खोकर अर्धनारीश्वर बने और समन्वय के परमोच्च 'कैलाशस्य प्रथम शिखरे वेणुसम्मूर्च्छनाभि:' समवेत होकर तांडव रचने लगे. बाबा विश्वनाथ पर गंगा का जलाभिषेक...
तो शक्ति की उपासना का केंद्र विंध्यधाम में अनेक रहस्य छिपे हैं. जब कोई साधक भगवती की आराधना करता है तब माता की कृपा से इन रहस्यों पर से पर्दा अपने आप ही हटता चला जाता है. मान्यता है कि मां विंध्यवासिनी के दर्शन के उपरांत त्रिकोण यात्रा करने से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं. विंध्यधाम सिद्धपीठ है. विंध्य पर्वत का ईशान कोण में मां विंध्यवासिनी विराजमान हैं. नवरात्र के दिनों में मां विंध्यवासिनी पताका पर विराजती हैं. विंध्याचल ही एकमात्र ऐसा शक्तिपीठ है, जहां देवी के संपूर्ण विग्रह के दर्शन होते है. मां विंध्यवासिनी का यह मंदिर देश के 108 सिद्धपीठों में से एक है.हजारों वर्षों से विंध्य क्षेत्र ज्ञान प्राप्त करने की तपोस्थली रहा है.मृत के जीवन, जड़ के त्रास, विष के निस्सार, अचल के पर्याप्त, अनल के आलोक और नक्षत्र के विक्षेप से जिस आनंद का उदय होता है, उसका रसास्वाद करने की क्षमता उनके विकटगणों में ही हो सकती है, वह मिलता है जगद्धात्री का आराधना से . मां जगदंबा के आठवें रुप महा गौरी के साथ मां विंध्यवासी कल्याण करें.