डेस्क... एकता कपूर, ताहिरा कश्यप और गुनीत मोंगा की महिला तिकड़ी ने महिला सशक्तिकरण का बेहतरीन उदहारण पेश किया है. उन्होंने महिला शक्ति को उजागर कर भारत की फिल्म उद्योग का नाम विश्व में रोशन किया है. उनकी शॉट फिल्म बिट्टू को ऑस्कर 2021 में एंट्री मिल गई है. फिल्म को Live Action Short Film कैटेगरी के लिए सलेक्ट कर लिया है. एकता कपूर की फिल्म को ऑस्कर में मिली एंट्री ताहिरा ने लिखा है- बिट्टू को अकेडमी अवॉर्ड में टॉप 10 में रखा गया है.. ये इंडियन वुमन के बढ़ते अरमान की पहली प्रोजेक्ट है . ये बहुत स्पेशल है.. वहीं एकता कपूर ने इस मौके पर खुशी जाहिर की है. उन्होंने बताया है कि उनकी पूरी टीम ने इस प्रोजेक्ट के लिए खास तैयारी की थी. उन्हें पूरी उम्मीद है कि बिट्टू को अन्तराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर काफी वोट मिलेंगे. मालूम हो कि जिस फिल्म को लेकर इतनी चर्चा हो रही है उसका निर्देशन एक स्टूडेंट ने किया है. जी हां, बिट्टू का डायरेक्शन करिश्मा देव दुबे ने किया है. ऑस्कर में एंट्री पाने से पहले इस फिल्म को पहले ही 18 फिल्म फेस्टिवल में दिखाया जा चुका है और कई अवॉर्ड इसके नाम हैं.
वहीं करिश्मा को भी बिट्टू के लिए बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड मिल चुका है. ऐसे में अब सभी को यही उम्मीद है कि उनकी ये शॉट फिल्म अब ऑस्कर में अपना विजय पताका लहरायेगी . वैसे बिट्टू को इतनी सफलता सिर्फ इसलिए मिल रही है क्योंकि इस फिल्म की कहानी में वास्तविकता का अहसास था. फिल्म में एक ऐसा इमोशनल कनेक्ट था, जिस वजह से इसने तमाम हस्तियों का ध्यान खींचा और देश में इसका ट्रेलर भी ट्रेंड करता दिख गया. बिट्टू (Bittu) को यहां निर्देशक ने भोली-भाली और निरीह बच्ची की तरह प्रस्तुत नहीं किया है, बल्कि उसे ज़िद्दी, अक्खड़, गुस्सैल और विद्रोही किस्म का दिखाया है. बिट्टू व्यवस्था की आंख में आंख डालकर बिना डरे सवाल पूछती है.आपको बता दे की शार्ट फिल्म निर्माण का अपना व्याकरण है और इसका पटकथा लेखन भी फीचर फिल्म से अलग है.
इसके निर्माण की विधि आम जनता के बीच उतनी प्रचलित नहीं है जितनी कि फीचर फ़िल्म. यही वजह है कि ये एक विशिष्ट कला शैली का दर्जा अब तक हासिल नहीं कर पाई है. इसके अलावा शॉर्ट फ़िल्म नई निर्देशक के लिए फीचर फ़िल्म का पूर्वाभ्यास जैसे होता है. जिसमें निर्देशक की अपनी निर्देशकीय क्षमता की परख होती है. अगर वो छोटी अवधि की कहानी से दर्शकों को बाँधने में कामयाब हो जाता है, तो फिर वो फीचर फ़िल्म के निर्देशन के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका है. विख्यात फ़िल्म निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन की माने तो “शॉर्ट फ़िल्म के माध्यम से कहानी कहना, फीचर फ़िल्म से ज़्यादा जटिल और मुश्किल है”. इसलिए जानकार भी, शॉर्ट फ़िल्म को फ़िल्म निर्माण को सबसे कठिन मानते है. फ़िल्म ‘चाँद’ और ‘बिट्टू’ नाम की दो छोटी बच्चियों की सच्ची मासूम दोस्ती की कहानी है. ये यारी इतनी मासूमियत से भरी है, जहाँ क्षण भर में ‘कट्टी’ और क्षण भर में ‘दोस्ती’ एक साथ चलती है. किसी एक के मन का न होने पर वो दूसरे से कट्टी हो जाता है और फिर कुछ समय तक साथ खेलने की बेवजह ये ‘कट्टी’ ‘दोस्ती’ में भी बदल जाती है. कहानी के केंद्र में एक सरकारी स्कूल और उसकी बदहाल व्यवस्था है, जिसमें चाँद और बिट्टू पढ़ती हैं, पर इनकी दोस्ती इस स्कूल तक ही सीमित नहीं है. इनकी मित्रता बाकी दुनिया से अलग एक समानांतर दुनिया रचती है जहाँ सिर्फ ये दोनों रहती हैं. वहां इन दोनों के खेल हैं, मस्ती है, डांस हैं और रूठना-मनाना है. स्कूल में एक आदर्श शिक्षक भी है.
जो बच्चों की संवेदनशीलता की गहरी पैठ रखता है. इसलिए फ़िल्म में कई जगह वो शिक्षक कम अभिभावक ज़्यादा नज़र आता है. प्रिंसिपल मैडम जब बिट्टू को चेहरा न धोने के लिए ताना देती है तो यही शिक्षक खुद साबुन से बिट्टू का मुंह साफ़ करता है. ये आदर्श टीचर इस सरकारी शिक्षा तंत्र में बेमेल करैक्टर है, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि उसने अपने अच्छे खासे कैरियर को छोड़कर बच्चों को पढ़ाने का फैसला किया होगा. इसलिए जब बिट्टू ग़लत व्यवहार करती है तो वो नाराज़ से ज़्यादा निराश होता है . बिट्टू व्यवस्था की आंख में आंख डालकर बिना डरे सवाल पूछती है. प्रतिरोध करने का उसका लहज़ा और अंदाज़ वही है जो वो अपने दोस्त चाँद से नाराज़ होने पर जताती है. फ़िल्म, स्कूल की एक कॉमन सवाल को रेखांकित करती है, जहाँ टीचर बार –बार पूछती है-‘अच्छे बच्चे कैसे हो’? तो रोबोट की तरह स्वतः बच्चे चुप हो जाते हैं और उंगली मुंह पर रख लेते हैं. स्कूली शिक्षा व्यवस्था को जीवंत और संवेदनशील होने की ज़रूरत पर भी ये फिल्म ज़ोर देती है.
फ़िल्म की निर्देशक करिश्मा कहती हैं “मैं एक नामी और बड़े स्कूल में पढ़ी हूं. फ़िल्म के कई हिस्से मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं. जैसे बचपन में कोई गलती हो जाने पर सज़ा के डर से मैं साफ झूठ बोल कर बच जाती थी. पर आज जब पलट कर अपने बचपन को देखती हूँ तो मुझे लगता है कि उस वक़्त बड़ों को मुझपर ज़्यादा दया और सहानुभूति दिखानी चाहिए थी.’ यही वजह है कि बिना किसी अनुशासन में बांधे करिश्मा ने फ़िल्म के कलाकारों, ख़ासकर बच्चों से अभिनय करवाया है, जो की देहरादून के हैं .महीने के प्रवास के बाद वहां के लोगों, उनके जीवन, उनके सामाजिक व्यवहार के तरीकों को मैंने देखा और समझा, फिर उन्हीं लोगों से अभिनय करवाया. ख़ासकर बिट्टू की भूमिका में रानी कुमारी और चाँद की भूमिका में रेणु कुमारी को देखकर आपको ये नहीं लगेगा कि वो किसी तैयारी या रिहर्सल के साथ अभिनय कर रहीं हैं. इन दोनों बच्चियों के अभिनय में एक स्वाभाविकता है जो स्वतः आपको उनकी ओर खींच लेंगी. कहानी का अंत बेहद दर्दनाक घटना से होता है, जिससे मन गहरे अवसाद से भर जाता है. ये अंत एक वास्तविक घटना पर आधारित है. हालांकि कहानी में उम्मीद की किरण भी नज़र आती है. अवसाद और उम्मीद के बीच तैरती फिल्म ‘बिट्टू’ पर मुझे कुंवर नारायण की सलाम बॉम्बे पर की गई एक टिप्पणी याद आती है “मनुष्य को उसके हार के अंधेरे में नहीं, उसकी जिजीविषा के आलोक में देखना ज़रूरी है.”बिट्टू में रानी कुमारी, रुनू कुमारी, कृष्णा नेगी, मोनू उनियल और सलमा खातूम जैसे कलाकारों को कास्ट किया गया है. इन्हीं कलाकारों की वजह से ये फिल्म पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बनी हुई है. अब ऑस्कर में ये भारत का प्रतिनिधित्व कितनी मजबूती से करती है, इस पर सभी की निगाह टिकने वाली है. यहाँ के भारतीय दर्शक यही उम्मीद कर रहे है कि ऑस्कर में लंबे समय बाद यह फिर से डंका बजाएगा .