PATNA: किसान आंदोलन और स्वामी सहजानांद सरस्वती में वाल्टर हाउज़र की लंबे समय तक दिलचस्पी बनी रही. जब हमलोगों का अस्सी के दशक में आंदोलन हुआ तो शायद वाल्टर हाउज़र ने हमें किसान आंदोलन की धारावाहिकता में देखा. ये एक मात्र पी.एच. डी का मामला नहीं बल्कि जीवन देने का मामला है. वाल्टर हाउज़र ने किसान आंदोलन पर रिसर्च किया जबकि आज डेवलपमेंट पर रिसर्च हो रहा है जिसे कारपोरेट तय कर रहे हैं. इस किताब को पचास साल पहले के हिसाब से देखने जी जरूरत है आज के हिसाब से नहीं. 1942 में कम्युनिस्टों ने जो लाइन ली उससे अलगाब झेला वो कोई परमानेंट अलगाव नहीं था. फिर उसके बल पर कम्युनिस्ट आंदोलन खड़ा होता है और बड़ी ताकत बनता. ये बातें भाकपा-माले (लिबरेशन) के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने तारामंडल साभागार में चिंताहरण सोशल डेवलपमेंट ट्रस्ट द्वारा आयोजित वाल्टर हाउज़र द्वारा लिखित " बिहार प्रोविंशियल किसान सभा 1929-1942 , ( ए स्टडी ऑफ इंडियन पीजेंट मूवमेंट ) के लोकार्पण समारोह में बोलते हुए कहा. इस लोकार्पण समारोह में शहर के बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में इकट्ठा थे.
दीपांकर भट्टाचार्य ने किताब के बारे में आगे बोलते हुए कहा " किसान से ही राष्ट्रीय आंदोलन को जगह मिली लेकिन किसान कहां हैं ? इस राष्ट्रवाद में यदि एन्टीफ्यूडल नहीं है, किसान निष्क्रिय नहीं एजेंडा तय करने वाला हो, इसकी कोशिश हो. स्वामी जी ऐसे ही थे. स्वामी जी किसान आंदोलन, भगत सिंह के साम्राज्यवाद विरोध और आंबेडकर के जाति को समाप्त करने वाला आन्दोलन ये तीनों को मिलाने की जरूरत है. स्वामी जी ने सत्ता के समक्ष सच बोला. समारोह में प्रो नवल किशोर चौधरी ने कहा वाल्टर हाउज़र ने सभी दस्तावेज़ों को संभाल कर रखा और बिहार के किसान आंदोलन पर महत्वपूर्ण कार्य किया है.1927 में पश्चिम पटना किसान सभा की स्थापना हुई थी. स्वामी जी मानते थे कि जब तक किसान लिबरेट न होगा, बिना जमींदारी उन्मूलन के आज़ादी का आंदोलन आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है. ये दूसरी बात है भूमि सुधार का काम अब तक अधूरा है. सामाजिक न्याय की ताकतें इतनी जल्दी सत्ता में नहीं आती. कैलाश चन्द्र झा ने कहा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और लेफ्टिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं की भर्ती के लिए किसान सभा पर निर्भर थे. आज जब किसानों की समस्या देश में केंद्र में आती जा रही है. इस संदर्भ में वाल्टर हाउज़र की यह पी.एच. डी थीसिस, जो 1961 में पूरा हुआ था, का महत्व बढ़ गया है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज , पटना सेंटर के चेयरपर्सन पुष्पेंद्र ने कहा " किसान आंदोलन पर जो दस्तावेज़ है उसमें किसान आंदोलन का जिक्र बहुत कम किया गया है। के.के दत्ता ने भी अपने अकादमिक लेखन में कम जगह दी गई है. वामपन्थी नेता गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने संबोधन में कहा गया ज़िला में किसानों की हालत बहुत खराब थी. यदुनंदन शर्मा, स्वामीजी आदि ने एक समिति बनाई. राजेन्द्र प्रसाद ने भी एक कमिटी बनाई. भूकंप के बाद जब किसानों की हालत बहुत खराब थी. स्वामी जी ने उसके बाद गांधी जी से संबंध तोड़ लिया था. लेनिन ने कहा था स्वाधीनता आंदोलन के समानांतर अपना आंदोलन खड़ा करो लेकिन तब कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के साथ रही. इस कारण स्वामी जी उससे अलग रहे. स्वामी जी 1945 के बिहटा सम्मेलन तक साथ रहे. कम्युनिस्टों से आत्मनिर्णय के सवाल पर मतभेद हुआ बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी गलती मानी. हरिकिशन सिंह सुरजीत ने इस पर लम्बा लेख भी लिखा है. यदि स्वामी 1950 में नहीं मरते तो वामपन्थियों को इकट्ठा कर विकल्प बना डालते और आज देश मे भाजपा की नहीं बल्कि लेफ्ट की सरकार होती.
लोकार्पण समारोह में बड़ी संख्या में नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी इकट्ठा थे. प्रमुख लोगों में विधान सभा के पूर्व सभापति उदय नारायण चौधरी, विधान पार्षद महाचन्द्र प्रसाद सिंह, प्रख्यात कवि आलोकधन्वा, चिकित्सक डॉ कृष्ण सिंह, भाकपा- माले -लिबरेशन के राज्य सचिव कुणाल, अजीत सिंह, अमहरा के पूर्व मुखिया आनंद कुमार, अरविंद सिन्हा, श्रीकांत, प्रणव कुमार चौधरी, माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष केदार पांडे, अरुण सिंह, प्रियरंजन, अशोक कुमार, डेज़ी नारायण, डॉ चन्द्रहास , डॉ अनिल, अवध कुमार सिंह, संतलाल, प्रो रंजीत, विश्वजीत, सुशील, जयप्रकाश, अभ्युदय, रवींद्र नाथ राय, नंद किशोर सिंह, मृत्युंजय शर्मा, अशोक कुमार, के.डी.यादव , संजय यादव, रामजीवन सिंह, अरुण शाद्वल, नवीन कुमार, उमेश, भैरव लाल दास,अरुण मिश्रा, कासिफ यूनुस, डॉ विभा, आभा झा, सौम्या, कविता, श्वेतलाना, शिवानी, शालू, सीटू तिवारी, डॉ शकील मौजूद रहें.