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गया में डेढ़ सौ साल पहले हुई तिलकुट बनाने की शुरुआत, अब 10 हज़ार लोगों की चलती है जीविका

गया में डेढ़ सौ साल पहले हुई तिलकुट बनाने की शुरुआत, अब 10 हज़ार लोगों की चलती है जीविका

GAYA : विश्व प्रसिद्ध गयाजी में एक विशेष मिष्ठान के रूप में तिलकुट की एक अलग पहचान होती है। यहां आनेवाले विदेशी पर्यटक भी तिलकुट का स्वाद चखने के लिये बेताब रहते है। लेकिन कोरोना के कारण इस साल तिलकुट की कम खरीदारी हो रही है। बताते चलें की गया शहर में सालों भर तिलकुट की ब्रिकी होती है। लेकिन सर्द मौसम आते ही इसकी मांग बढ़ जाती है। अक्टूबर माह के शुरू होते ही सन्नाटे की चिरते धम-धम की आवाज और सोंधी महक से शहर गुलजार होते जाता हैं। यह किसी फैक्ट्री अथवा किसी अन्य मशीनों की आवाज नही रहती है, बल्कि हाथ से कुटे जाने वाले तिलकुट कुटने की आवाज होती है। तिलकुट को गया का प्रमुख सांस्कृतिक मिष्ठान के रूप में देश-विदेशों में जाना जाता है। लेकिन अपनी विशिष्टता के कारण राष्ट्रीय-अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर पहुॅच बनाने वाला तिलकुट का सरकार की उपेक्षा व जिला उद्योग केन्द्र के असहयोगात्मक रवैये के कारण अपेक्षा के अनुरूप फैलाव नहीं हो पा रहा है।

इस सांस्कृतिक मिष्ठान की प्रसिद्धि का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की राजधानी दिल्ली में प्रतिवर्ष लगनेवाले अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार मेले में तिलकुट स्टॉल लगाने के लिए यहां के कई तिलकुट व्यवसायी जाते हैं। उत्तर भारत की सांस्कृतिक नगरी गया मौसमी मिष्ठानों के लिए चर्चित रहा है। यहां प्रायः प्रत्येक ऋतु के अनुसार मिष्ठानों के निर्माण की परंपरा आज भी बरकरार है। बरसात के मौसम में अनरसा, गर्मी में लाई एवं जाड़े में तिलकुट का कारोबार उफान पर रहता है। भौगोलिक दृष्टि से गया का जलवायु इस उद्योग के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। यहां के बने तिलकुट न केवल काफी दिनों तक खानों योग्य रहता है, बल्कि इसे नमी से बचाकर रखा जाए तो काफी दिनों तक खानों का योग्य बना रहता है। 

मकर संक्राति जैसे महापर्व पर अपने देश में तिल की बनी वस्तुओं के दान व खाने की धार्मिक परंपरा रही हैं। इसी महत्व को ध्यान में रखकर अरसे से तिलकुट का निर्माण किया जाता है। गया में तिलकुट बनाना कब से प्रारंभ हुआ। इसका कोई प्रमाणित मत नहीं है। लेकिन सर्वमान्य मत कि आज से करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले गया शहर के रमना मुहल्ले में तिलकुट बनना शुरू हुआ था। तिलकुट की शुरूआत करने वाले लोगों के वंशज ही आज इसी मौसमी कुटीर उद्योग को आगे बढ़ा रहे है। अब तो शहर के रमना रोड़, टेकारी रोड़, कोयरीबारी, राजेन्द्र आश्रम, चॉद चौरा, मंगला गौरी, रामपुर, सरकारी बस स्टैड, डेल्हा, बाईपास, स्टेशन रोड़ आदि में तिलकुट का निर्माण किया जा रहा हैं। कुछ व्यवसायी तो तिलकुट को डिब्बा में बंद करके दूर-दराज के क्षेत्रों में भी भेजने का कारोबार बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। 

कड़ी मेहनत से तिलकुट को बनाया जाता है। गुड़ या चिनी की चासनी बनाकर उसे कुट-कुट कर तिलकुट तैयार किया जाता है। फिर तिल को बड़े पात्रों से भुनकर चासनी के ठंढे टुकडों के साथ मिलाकर उसे कुट-कुट कर तैयार किया जाता है। शहर कि दुकानों में अब सालों भर तिलकुट उपलब्ध रहता है। तिलकुट का मौसम जाड़े को माना जाता है। इसी समय सवार्धिक तिलकुट की खपत होती है। मकर संक्रांती के अवसर पर जो तिलकुट की खपत चरम पर रहता है। यहॉ के तिलकुट बिहार के शहरों के अलावा पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र आदि राज्य के छोटे-बड़े शहरों में भेजा जाता है। इस व्यवसाय से गया में करीब दस हजार लोग जुड़े हैं।

गया से मनोज कुमार की रिपोर्ट

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