सबसे खूबसूरत तवायफ उतरी चुनाव मैदान में... एक नारे से बदल गया समीकरण, 'दिल दीजिये दिलरुबा को, वोट दीजिये शम्सुद्दीन को'
DESK. अपने खास मिजाज की नुमाइंदगी के लिए जो शहर जाना जाता हो, वहां की फिजाओं में सियासत भी उसी अदब और तहजीब से होती है. चीखने-चिल्लाने वाले सियासतदानों से अलग शालीनता और संयम का लहजा जब चुनावी दौर में दिखे तो नारे भी खास हो जाते हैं. तभी तो चुनाव मैदान में जब शहर की सबसे खूबसूरत तवायफ ने कदम बढ़ाया तो उसके चाहने वाले दीवानों ने वोट क्या अपनी जान तक देने की बातें कर दी. ऐसे में विरोधी का होश उड़ जाना लाजमी ही होगा. तो नारे लगे 'दिल दीजिये दिलरुबा को, वोट दीजिये शम्सुद्दीन को'.
लोकसभा चुनाव प्रचार के आबोहवा के बीच ऐसा ही एक किस्सा है दिलरुबा का. वही दिलरुबा जो पैरों में घुंघुरू बांधकर नाचती तो शहर के सारे सफेदपोश मदहोश हो जाते हैं. जिसके कोठे पर शहर के सारे दौलतमंदों की कतार लगी रहती, जिसकी एक झलक पाने को सोने की गिन्नियां लुटाने वालों में होड़ लगी रहती. वही सबसे खूबसूरत तवायफ अब वोट मांगने को चेहरे को बेपर्दा किए गलियों में घूमने लगी. यह किस्सा लखनऊ के अंदाज को बयां करता है. इसमें लखनवी अदब का रंग भी रहा और सियासी शालीनता भी.
हुआ यूं कि 1920 में म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन का चुनाव लखनऊ में हुआ. शहर की सबसे मशहूर तबायफ दिलरुबा जान ने चुनाव में उतरने का फैसला कर लिया. फिर क्या था जिसके कोठे पर सोने की गिन्नियां लुटाने वाले शहर के सारे 'शरीफजादे' जुटते थे, उस दिलरुबा जान को अपने गली-कूचों में देख भारी भीड़ उमड़ पड़ी. महफिलों में जुटने वाली भीड़ से कहीं ज्यादा शहर की सड़कों में दिलरुबा जान की नुमाइशबाजी का दीदार करने लोग जुट गए. फिर क्या था दिलरुबा जान के मुकाबले में खड़े एक हकीम यानी वैद्य शम्सुद्दीन का तो चुनाव परिणाम से पहले ही होश उड़ गया.
ऐसे में शम्सुद्दीन के लिए एक नारा गढ़ा गया. शम्सुद्दीन के समर्थकों ने दीवारों पर नारा लिखवाया . ‘हिदायत है ये चौक के वोटर-ए-शौक़ीन को दिल दिलरुबा को दीजिए, वोट शम्सुद्दीन को’. ऐसे में दिलरुबा जान भी कहां चुप बैठने वाली थी. उसने भी एक जवाबी नारा दिया- ‘वोट दिलरुबा को दीजिए, नब्ज़ शम्सुद्दीन को.’ यानी वोट शहर की सबसे खूबसूरत तबायफ को दें और केवल बीमार लोग ही अपनी नब्ज दिखाने शम्सुद्दीन के पास जाएं. कहते हैं दोनों नारों को लेकर आम लोगों की जुबान पर खूब चर्चा हुई. ऐसे में चुनाव के बाद जो परिणाम आया तो वह भी चौंकाने वाला रहा. शहर की सबसे खूबसूरत तवायफ चुनाव हार गई. एक अदा से सैंकड़ों का दिल लूटने वाली दिलरुबा जान वोटरों का दिल नहीं जीत पाई.
इतिहासकार योगेश प्रवीण ने उस चुनाव का जिक्र करते हुए लिखा है कि दिलरुबा जान की सभाओं में उमड़ने वाली भीड़ वोट में तब्दील न हो सकी. कहते हैं चुनाव जीतने के बाद हक़ीम साहब सीधे दिलरुबा से मिलने गए. दोनों एकदूसरे से बड़ी गर्मजोशी और एहतेराम से मिले. मिलते ही दिलरुबा ने अपनी दिलकश अदा से हक़ीम साहब को छेड़ा- 'हक़ीम साहब आपको बहुत बहुत मुबारकबाद! आप आप हो लिए,हम हम रह गए!'. लेकिन दिलरुबा जान को चुनाव हारना नागवार नहीं गुजरा. उसने तो लखनऊ के मिजाज की तरह ही लखनऊ के दस्तूर को क़ायम रखा. दिलरुबा जान ने शम्सुद्दीन को बधाई देते हुए कहा कि इस बात का आज पता चला कि लखनऊ में आशिक़ कम हैं, मरीज़ ज़्यादा हैं.’