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निहत्थे प्रदर्शनकारी युवाओं पर प्रहार करने का नतीजा रहा की ''जेपी'' ने देश के सियासत की दशा दिशा बदलकर रख दी थी: मुरली मनोहर श्रीवास्तव

निहत्थे प्रदर्शनकारी युवाओं पर प्रहार करने का नतीजा रहा की ''जेपी'' ने देश के सियासत की दशा दिशा बदलकर रख दी थी: मुरली मनोहर श्रीवास्तव

PATNA :  4 नवंबर, 1974 को पटना में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विधानसभा के समक्ष जबरदस्त प्रदर्शन करने का निर्णय किया गया। जयप्रकाश नारायण सुबह नौ बजे जीप में बैठकर प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए कदमकुआँ स्थित अपने निवास महिला चरखा समिति के कार्यालय से निकल पड़े। बहुत ज्यादा भीड़ होने के कारण पुलिस प्रदर्शनकारियों को रोकने में असमर्थ लग रही थी। जब प्रदर्शनकारी सचिवालय की ओर जानेवाली सड़क पर पहुंचे, तब एकाएक मजिस्ट्रेट के आदेश पर सी.आर.पी. के जवानों ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध लाठियां बरसाते हुए अश्रु गैस के गोले छोड़ने आरंभ कर दिए। बिहार की पुलिस उतनी कठोरता और बेरहमी से लाठीचार्ज नहीं कर रही थी, जितनी सी. आर. पी. के जवान कर रहे थे। जे. पी. से यह देखा नहीं गया, वे उन्हें रोकने के लिए जीप से कूद गए। उन्होंने रौब भरे स्वर में सी. आर. पी. के जवानों को लताड़ते हुए कहा, 'क्यों निहत्थे युवकों को इतनी बेरहमी से मार-पीट रहे हैं।' इस पर सी. आर. पी. के एक जवान ने लाठी उठाकर जे. पी. के सिर पर निशाना लगाया। उनके साथ वहाँ मौजूद नानाजी देशमुख और कांग्रेस नेता श्यामनंदन मिश्र आदि ने लपककर लड़खड़ाते जयप्रकाश नारायण को थाम लिया। लाठी के प्रहार नानाजी देशमुख की बांह में लगी और उनकी बांह टूट गई। जे. पी. कुछ क्षण के लिए मूर्च्छित हो गए। सड़क के किनारे एक खटिया लाकर पेड़ के नीचे लिटाया गया और उनके मुंह पर पानी के छींटे दिए गए, जिससे उनकी मूर्च्छा टूटी। उस दिन लगभग तीन हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें नानाजी देशमुख के अतिरिक्त सत्येंद्र नारायण सिंह और दिग्विजय नारायण सिंह भी शामिल थे। जयप्रकाश नारायण ने उस दिन क्षुब्ध होकर कहा था कि पचास वर्षों के अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उन्होंने ऐसी बर्बरता कभी नहीं देखी थी। उन्होंने कहा कि अगर वे जिंदा रहे तो इन बर्बर लोगों को सबक सिखाकर रहेंगे। उन्होंने कहा कि आज से हमारी लड़ाई बिहार की गफूर सरकार से नहीं, बल्कि अब यह लड़ाई भारत की जनता और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच हो गई है। 15 नवंबर को लोकसभा में गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी ने 4 नवंबर को पटना में जयप्रकाश नारायण पर हुए लाठीचार्ज के लिए खेद व्यक्त किया।

कई राजनीतिक विश्लेषकों का विचार था कि बात गफूर सरकार तक सीमित नहीं थी। वे तो एक अधिक बड़ी और महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बाजी के मोहरा भर थे। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन तात्कालिक भले ही गफूर सरकार के विरुद्ध था। लेकिन यह जाहिर था कि लाठीचार्ज में बेहोश हो जाने के बाद होश में आने पर जयप्रकाश नारायण सिर पर गमछा लपेटे लाठी के सहारे नानाजी देशमुख व अन्य के साथ जुलूस में आगे बढ़ते हुए चल पड़े।

यदि वह गफूर सरकार को हटाने और विधानसभा भंग कराने में कामयाब हो जाते तो यह केंद्रीय कांग्रेस नेतृत्व और केंद्र सरकार को एक बड़ा झटका होता। जे.पी. पुलिस के प्राणघातक हमले में बच गए। अखबारों में इस घटना के समाचार व फोटो भी छपे, लेकिन यदि यह लाठीचार्ज, जो जे.पी. के सिर पर निशाना लगाकर किया गया था, नानाजी देशमुख स्वयं नहीं झेलते तो शायद जे.पी. का वहीं अंत हो गया होता। जो हश्र 1928 में लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन में लाला लाजपतराय की हुई थी, जिन्हें पुलिस लाठीचार्ज में सीने पर भयंकर चोट लगी थी, जिसके परिणामस्वरूप करीब दो सप्ताह बाद उनका देहांत हो गया था। ठीक कुछ ऐसे ही हालात जेपी के साथ भी हो जाते। 4 नवंबर के लाठीकांड के बाद जे. पी. फिर साहस और जोश के साथ प्रदर्शन में शामिल हो गए। पुलिस ने उन्हें हिरासत में लेने के बाद रात 10 बजे उन्हें उनके घर पहुंचा दिया। जे.पी. के साहस की प्रशंसा करते हुए प्रसिद्ध साप्ताहिक 'धर्मयुग' के संपादक धर्मवीर भारती ने एक कविता लिखी, जो बहुत चर्चित हुई थी0। कविता थी -खलक ख़ुदा का, मुलुक बादशा का हुकुम शहर कोतवाल का हर खासो आम को आगाह किया जाता है कि खबरदार रहें।."एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है।" क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी जिसमें हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे कांपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ? अब पूछो कहांं है वह सच जो इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ? हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे कर दिए हैं और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजाए ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बुलंदी में इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!

आंदोलन की निंदा करते हुए उसे अलोकतांत्रिक बताना मुश्किल हो जाएगा। आखिरकार, लोकतंत्र में जनता के निर्णय को अंतिम आदेश मानना ही होगा। चुनाव में वे स्वयं एक उम्मीदवार नहीं होंगे। लेकिन निश्चित रूप से वे नायक होंगे, अवाम, नौजवानों और छात्रों के रहनुमा हैं। उस आंदोलन में बिहार में सरकार ने जे. पी. के नेतृत्व में संचालित आंदोलन को दबाने में कोई कोर- कसर बाकी नहीं रखी। स्वयं सरकारी अधिकारियों के अनुसार राज्य में सी.आर.पी. (केंद्रीय रिजर्व पुलिस) के 8000 जवान तैनात किए गए। यह उस समय देश के किसी राज्य में सी.आर.पी. की सबसे बड़ी तैनाती थी। इसके अलावा बी.एस.एफ. (सीमा सुरक्षा बल) के 5000 जवान, बिहार मिलिटरी पुलिस की 13 बटालियनें, आर. पी.एफ. (रेलवे सुरक्षा बल) के 2500 जवान, राज्य पुलिस के 42,000 जवान और 80,000 होमगार्ड राज्य के विभिन्न भागों में स्थिति का सामना करने के लिए लगाए गए। न केवल सरकारी दफ्तरों, मंत्रियों के बंगलों और विधायकों व अधिकारियों के निवास स्थानों को बांस-बल्लों से घेर दिया गया। जे. पी. आंदोलन में भाग लेने के लिए बाहर से पटना आनेवाले लोगों को रोकने के लिए कई-कई किलोमीटर तक बैरीकेडिंग कर दी गई। भारत रक्षा कानून के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर के कई प्रमुख विपक्षी नेताओं को बिहार में प्रवेश करने से रोक दिया गया या बिहार से बाहर निकाल दिया गया। हजारों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। जेलों में जगह कम होने से राज्य सरकार ने कई जेल कैंप खोलने के आदेश दिए।

इस आंदोलन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जेपी से अच्छे संबंधों के बावजूद उनकी नाफरमानी के खिलाफ जेपी को खड़ा होना पड़ा और सियासत की रंग ऐसी बदली की आज तक बदलाव को लेकर राजनेता अपनी-अपनी भूमिका निभाते आ रहे हैं। जब सत्ता कमान से बाहर होकर निरंकुश हो जाती है तो निश्चिततौर पर एक बदलाव की बयार बहती है और वही आगे चलकर एक इतिहास बन जाता है।

लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव की कलम से

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