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नीतीश का क्या बिगाड़ पाएंगे उपेंद्र कुशवाहा ... कोयरी समाज में कितनी मिलेगी अहमियत, समझिये बिहार का सियासी समीकरण

नीतीश का क्या बिगाड़ पाएंगे उपेंद्र कुशवाहा ... कोयरी समाज में कितनी मिलेगी अहमियत, समझिये बिहार का सियासी समीकरण

पटना. उपेंद्र कुशवाहा ने एक बार फिर से अपनी नई राजनीतिक पार्टी बना ली. उनकी नई पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल है. यह कोई पहला मौका नहीं है जब उपेंद्र कुशवाहा ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ बगावत कर अपने लिए अलग सियासी जमीन तैयार की हो. नीतीश के साथ उपेंद्र की राजनीतिक पारी देखें तो पिछले 18 साल में यह तीसरा मौका है जब कुशवाहा उनसे नाराज होकर अलग हुए हैं. उपेंद्र कुशवाहा के जिस तरह का सियासी सुर नीतीश और जदयू अध्यक्ष ललन सिंह के खिलाफ पिछले कुछ सप्ताह से अपनए हुए थे उससे यह तय था कि जल्द ही उपेंद्र अपने लिए नई राह बनाएंगे. उन्होंने वैसा ही किया और राष्ट्रीय लोक जनता दल के नाम से अब नीतीश के खिलाफ हुंकार भरने को तैयार हैं. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि उपेंद्र कुशवाहा का यह नया राजनीतिक कदम नीतीश कुमार को कितना नुकसान पहुंचाता है. इसके लिए इतिहास को देखने की जरूरत है. 

उपेंद्र कुशवाहा अब नीतीश कुमार का क्या बिगाड़ पाएंगे यह मौजूदा समय में सबसे ज्यादा लोगों के दिमाग में कौंध रहा है. उपेंद्र कुशवाहा ने अपने राजनीतिक जीवन में 9 बार चुनाव लड़ा है. लेकिन उन्हें सफलता सिर्फ दो बार मिली. पहली बार वे वर्ष 2000 में समता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में वैशाली जिले के जंदाहा से चुनाव जीते और विधायक बने. बिहार में वह लालू-राबड़ी के शासनकाल का दौर था. इसी दौरान 2004 में उपेंद्र कुशवाहा को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनने का मौका मिल गया. एक तरह से उनका कद बढ़ गया. लेकिन 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में जब उपेंद्र कुशवाहा चुनाव हार गए तो उन्हें बड़ा झटका लगा. 

उस समय नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और सुशील कुमार उप मुख्यमंत्री लेकिन कुशवाहा को कोई पद नहीं मिला. इससे आहत उपेंद्र ने नीतीश का साथ छोड़ दिया और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी यानी शरद पवार के दल में चले गए. वे उस समय नीतीश कुमार के धुर आलोचक बन गए. लेकिन एनसीपी में रहते हुए कुशवाहा कुछ भी खास नहीं कर पाए. वे नीतीश का कुछ नहीं बिगाड़ पाए. अंततः  31 अक्टूबर 2009 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती के मौके पर नीतीश कुमार ने उपेंद्र कुशवाहा को जेडी (यू) में लौट आने का न्यौता दिया. कुशवाहा उस कार्यक्रम में मौजूद थे. फिर कुशवाहा ने भी जदयू में वापसी कर ली. उन्हें नीतीश ने राज्यसभा भेज दिया.

2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार अपने चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरे. उनका लव-कुश यानी कुर्मी और कोयरी फार्मूला सफल रहा और दोनों जातियों के नेता के तौर में नीतीश ने अपनी पैठ बढ़ा ली. यह एक प्रकार से उपेंद्र कुशवाहा को झटका था जो खुद की राजनीति कोयरी नेता के तौर पर करना चाहते थे. उस समय कुशवाहा पर आरोप लगा कि उन्होंने कई जगह अपनी ही पार्टी के ख़िलाफ़ कुप्रचार किया. बाद के वर्षों में जब नीतीश का भाजपा से मन मुटाव हुआ तो कुशवाहा ने भी नीतीश के खिलाफ हुंकार भर दी. वे 2013 में तीन मार्च को नीतीश से अलग हो गए और रालोसपा नाम की अलग पार्टी बना ली.

वहीं 16 जून 2013 को जेडी (यू) के एनडीए से बाहर हो जाने के बाद उपेद्र कुशवाहा की रोलसपा अब भाजपा के साथ एनडीए में चली गई. 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 3 संसदीय क्षेत्रों में जीत मिली. माना गया कि इसका बड़ा कारण भाजपा की ओर से पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर जताया गया भरोसा था जिसमें कोयरी समाज का बड़ा वोट बैंक कुशवाहा की ओर शिफ्ट हुआ. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक उस जीत को उपेंद्र कुशवाहा से ज्यादा नरेंद्र मोदी की जीत मानते हैं. वहीं नवंबर 2015 में हुए विधान सभा चुनाव में रालोसपा सिर्फ़ तीन सीटें जीत सकी जबकि एनडीए के सभी घटक दलों को बिहार में झटका लगा. 

वहीं केंद्र में मंत्री रहे उपेंद्र को उस समय झटका लगा जब 27 जून 2017 को नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी हो गई. इसने कुशवाहा को परेशान कर दिया. नतीजा हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले फिर से उपेंद्र कुशवाहा अलग धरे यानी राजद के साथ हो गए. लेकिन चुनाव में अपने बलबूते जीत हासिल करने का उनका सपना पूरा नहीं हुआ. वहीं एनडीए यानी नीतीश और भाजपा के गठबंधन ने बिहार में 40 में 39 सीटें जीत ली. एक तरह से कोयरी समाज का वोट बैंक उपेंद्र के नाम पर उनकी ओर शिफ्ट नहीं हुआ. वहीं वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में वे राजद से भी अलग हो गए और चार दलों के साथ अपने बलबूते चुनाव में उतरे लेकिन वहां भी उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. उन्होंने फिर से 14 मार्च 2021 में अपनी पार्टी का जदयू में विलय कर दिया. उन्हें नीतीश ने एमएलसी बना दिया. 

यानी उपेंद्र के सियासी सफर को देखें तो खुद के बदौलत वे कभी कुछ खास नहीं कर पाएं हैं. यहां तक कि जिस कोयरी समाज का चेहरा होने का वे दावा करते हैं वहां भी उन्हें कोई खास जगह नहीं मिली. अनुमानित रूप से कोयरी वोट बैंक करीब 8 से 9 फीसदी है. लेकिन इस समाज का चेहरा उपेंद्र कुशवाहा हों यह आज तक वे साबित नहीं कर पाए. संभवतः इसी वजह से जदयू अध्यक्ष ललन सिंह मानते हैं कि उपेंद्र का जदयू से जाना कोई खास चिंता की बात नहीं है. वे मानते हैं कि अब तक कोयरी समाज ने उपेंद्र को कोई खास अहमियत नहीं दी तो आगे भी उन्हें खास तबज्जो नहीं मिलेगा. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम ने जिस तरह का झटका नीतीश को दिया था अगर इस बार भी उपेंद्र अब एनडीए में आते हैं तो इससे जदयू की मुश्किल हो सकती है. लेकिन जदयू के सूत्र कहते हैं कि 2015 के विधानसभा चुनाव भी उपेंद्र एनडीए में थे लेकिन महागठबंधन को बड़ी जीत मिली थी. 


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