Bihar News - बिहार का एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र, जहाँ अभीतक बीजेपी का नहीं जीता कोई उम्मीदवार, दलित कंडीडेट का रहा है बोलबाला...

Bihar News - हम आपको बिहार के एक ऐसे विधानसभा क्षेत्र के बारे में बताने जा रहे है। जहाँ अभी तक बीजेपी का कोई उम्मीदवार नहीं जीता है।

बीजेपी के लिए अभेद्य

Bihar News : बिहार में चार विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होनेवाले हैं। जिसमें रामगढ़, इमामगंज, तरारी और बेलागंज शामिल है। इसमें आज हम कहानी सुना रहे हैं एक ऐसे विधानसभा सीट की। जहां अब तक भाजपा का कोई भी उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में जीत नहीं पाये है। जी हां, हम बात कर रहे हैं इमामगंज विधानसभा सीट की। 

1957 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय यह सीट पहली बार अस्तित्व में आया और निर्दलीय प्रत्याशी  रहे अम्बिका प्रसाद सिंह ने जीत दर्ज की। वह निर्दलीय चुनाव लड़े थे और प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की महिला उम्मीदवार चंद्रावती देवी को करीब दो हजार मतों से हराया था। दूसरी बार भी अम्बिका प्रसाद सिंह स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार बने और कांग्रेस के जगलाल महतो को हराया। फिर आया 1967 का बिहार विधानसभा चुनाव और इस चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी डी. राम ने जीत दर्ज की ।1967 के चुनाव में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व हो गई, तब से आजतक इस सीट पर अनुसूचित जाति के लोग ही चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन 2 साल बाद ही बिहार में फिर एक बार विधानसभा चुनाव हुआ और संसोपा के प्रत्याशी रहे इश्वर दास ने जीत का परचम लहराया। 

दरसअल 1967 के बिहार के बिहार बिधानसभा चुनाव के समय से ही संसोपा ने जनता के बीच अपनी अच्छी पैठ बना ली। 1967 के चुनाव के बाद संसोपा के तरफ से एक नारा दिया गया और ये नारा जनता के बीच खूब लोकप्रिय हुआ । और वो नारा था – संसोपा ने बांधी गांठ- पिछड़ा पावे सौ में साठ, अंग्रेजी में काम न होगा-फिर से देश गुलाम न होगा । 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी अवधेश राम ने जीत दर्ज की। इस चुनाव के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी  ने 1975 में पुरे देश मे आपातकाल की घोषणा कर दी। इस आपातकाल के खिलाफ पुरे देश से इंदिरा गाँधी के खिलाफ  विरोध के स्वर उठे ।  1975 में लगी इमरजेंसी के दौरान देश में जो विपक्ष तैयार हुआ। उसने भारतीय लोकतंत्र को सजीवता दी और आपातकाल के विरोध में बिहार से लोकनायक जयप्रकाश नरायण की की सशक्‍त आवाज गूंजी। इमरजेंसी के बाद 1977 में बिहार मे विधानसभा चुनाव हुई और इस चुनाव में बिहार में पहली बार कांग्रेस की करारी हार वर्ष 1977 के विधानसभा चुनाव में हुई थी। 

तब उसे 324 में 57 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। इस चुनाव जनता पार्टी के प्रत्याशी इश्वर दास ने जीत का परचम लहराया। मगर तत्कालीन सरकार पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और तीन वर्षों बाद ही वर्ष 1980 में हुए चुनाव में कांग्रेस 169 सीटें लाकर फिर पूर्ण बहुमत हासिल की। 1980 के चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी चंद्र सिंह ने जीत दर्ज की। 1980 के पहले भी बिहार में दो बार मध्यावधि चुनाव हुए। एक 1969 और दूसरा 1972 में। 1972 में भी कांग्रेस 318 में 167 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत हासिल की थी। वहीं 1969 में कांग्रेस को 118 सीटें मिली थी। इस तरह देखा जाए आजादी के बाद 1980 तक मध्यावधि चुनाव की तीन बार नौबत आई, जिनमें दो बार कांग्रेस पर जनता ने पूरा भरोसा किया। एक मध्यावधि चुनाव 1969 में हुआ था, जिसमें किसी भी दल को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ था, पर कांग्रेस सबसे अधिक सीटें जीतनें में कामयाब हुई थी। 1985 के विधान सभा चुनाव के समय भी श्री चंद्र सिंह ने ही जीत का परचम लहराया । फिर आया 1990 विधानसभा चुनाव जब पुरे बिहार के राजनिति में समाजवाद की लौ जल रही थी। उस चुनाव में इमामगंज सीट से एक प्रत्याशी का नाम आया जो अब तक बिहार के राजनीति में प्रासंगिक बने हुए हैं। वो नाम था उदय नारायण चौधरी का। वो इस चुनाव में जनता दल के प्रत्याशी के रूप में चुनावी  समर में उतरे और जीत भी दर्ज की और बिहार सरकार में गृह और कारा मंत्री बने। उदय नारायण चौधरी का जन्म पटना के पास ही मसौढ़ी में हुआ है। उदय नारायण चौधरी को पहचान तब मिली। जब उन्‍होंने 1984 में बंधुआ मंजदूरी के खिलाफ आवाज बुलंद की। लेकिन 1995 के चुनाव में जनता दल के प्रत्याशी उदय नारायण चौधरी को समता पार्टी के कैंडिडेट रामस्वरूप पासवान से 120 वोटों के मामूली अंतर से शिकस्त का सामना करना पड़ा।

लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव में  उदय नारायण चौधरी ने रामस्वरूप पासवान को पटखनी दे दी और लगातार 2010 के विधानसभा चुनाव तक  जदयू के टिकट पर जीतते रहे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के समाप्ति के बिहार में एक नया राजनैतिक घटनाक्रम हो गया और 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा । 2009 में लोकसभा की 20 सीट जितने वाली जदयू को इस चुनाव मे सिर्फ 2 सीट पर ही जीत मिल सकी। पार्टी की हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया । लेकिन नीतीश कुमार से राजनीतिक खटास होने के होने कारण शपथ लेने के 9 महीने के बाद 2015 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले जीतन राम मांझी को बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा । 2015 के चुनाव के समय जदयू और राजद के साथ गठबंधन था और मांझी ने अपनी पार्टी बना ली थी । उस पार्टी का नाम था हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा । इस पार्टी का गठबंधन भाजपा के साथ था । 

वर्ष 2015 में अजेय समझे जाने वाले तत्कालीन जदयू उम्मीदवार और प्रदेश की राजनीति के दिग्गज समझे जाने वाले उदय नारायण चौधरी को करीब 30 हजार वोटों से जीतन राम माझी ने हराया था। रोचक बात यह है कि मांझी उस वर्ष दो जगह से चुनाव लड़े थे। तब मखदूमपुर सीट पर उनकी हार हुई थी। 2020 के विधानसभा चुनाव में माझी ने एक बार फिर उदय नारायण चौधरी को पटखनी दी । लेकिन इस बार चौधरी जदयू प्रत्याशी के रूप मे चुनावी मैदान में नही थे । जदयू से राजनीति में लंबी पारी खेलने वाले उदय नारायण चौधरी कभी नीतीश कुमार के करीबी माने जाते थे।

 हालांकि वक्‍त के साथ हालात बदले और अब वह महागठबंधन की तरफ से ताल ठोक रहे हैं। उदय नारायण चौधरी 2005-2015 से बिहार विधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। इसके साथ ही वे इस  पद संभालने वाले बिहार के पहले दलित शख्‍स बने थे।
इस बार इमामगंज सीट पर होने वाले विधानसभा उप चुनाव में एनडीए गठबंधन के तरफ से दीपा मांझी प्रत्याशी बनाई गई है। वो पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की बहु हैं। तो वही राजद ने रौशन  मांझी को और जन सुराज ने जितेंद्र पासवान  को प्रत्याशी बनाया है।

 पटना से रितिक कुमार की रिपोर्ट 

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