कांग्रेस के 40 नेताओं को नहीं मिलेगा बिहार विधानसभा चुनाव का टिकट ! राहुल गांधी के तय फ़ॉर्मूला से बढ़ी मुश्किल
बिहार में विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही कांग्रेस के जिला अध्यक्षों की चिंता बढ़ी हुई है. इसका कारण राहुल गांधी का पूर्व का एक ऐलान है बताया जा रहा है.
Rahul Gandhi : बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट पाने की चाहत रख रहे जिला अध्यक्षों को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. जिला अध्यक्षों को चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाने का फैसला राहुल गांधी का ही रहा है. राहुल गांधी ने कुछ महीने पूर्व भोपाल में कांग्रेस के संगठन सृजन अभियान के शुभारंभ के दौरान स्पष्ट रूप से कहा था कि जिलाध्यक्ष और अन्य संगठनात्मक पदाधिकारी चुनाव नहीं लड़ेंगे, उनका प्राथमिक काम संगठन को मजबूत करना होगा. साथ ही दिल्ली से भेजे गए ऑब्जर्वरों की निष्पक्षता पर कड़ाई से नजर रखी जाएगी और शिकायत मिलने पर कार्रवाई की जाएगी. अब यही फार्मूला बिहार विधानसभा चुनाव पर लागू हुआ तो कांग्रेस के कई जिला अध्यक्ष जो टिकट की चाहत रख रहे हैं उनका पत्ता कट जाएगा.
राहुल ने कैसे निर्णय लिया
भोपाल में हुई बैठक में मौजूद सूत्रों के अनुसार कई नेताओं ने संगठनात्मक कमजोरी और टिकट-संधानों के कारण पैदा होने वाले गुटबाज़ी के उदाहरण रखे। राजनीतिक मामलों की कमेटी में यह सुझाव उभरा कि यदि जिलाध्यक्ष चुनाव लड़ते रहेंगे तो वे संगठन के लिए समर्पित नहीं रह पाएँगे और स्थानीय नेताओं के साथ सत्ता-संबंधी समीकरण उलझेंगे। वहीं कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद ने ऑब्जर्वरों की भूमिका पर चिंता जाहिर की और पूछा कि अगर ऑब्जर्वर भेदभाव करेंगे तो उनका क्या होगा।
इन दो सुझावों पर विस्तृत चर्चा के बाद — राहुल गांधी ने दोनों बिंदुओं को स्वीकार कर लिया और निर्देश दिए कि आगे से जिलाध्यक्षों की यह भूमिका स्पष्ट रूप से संगठनात्मक रखी जाएगी और ऑब्जर्वरों की जवाबदेही तय की जाएगी। पार्टी के शब्दों में, यह फैसला “संगठन और चुनावी भूमिकाओं को अलग” करने का तर्क लेकर लिया गया है। अब बड़ा सवाल है कि क्या यही नियम बिहार में भी लागू होगा?
बिहार पर क्या होगा असर
यह निर्णय सीधे-सीधे बिहार जैसे राज्यों में सियासी हलचल पैदा कर रहा है। बिहार में अक्सर स्थानीय पॉलिटिक्स, जातीय समीकरण और ग्रासरूट लोकप्रियता पर टिकट आवंटित होते हैं — कई बार वही जिलाध्यक्ष अपने इलाके में सबसे मजबूत चेहरे होते हैं। ऐसे में अगर कांग्रेस इस नए फ़ॉर्मूले को कड़ाई से लागू करती है, तो संभावित नतीजे दो तरह के हो सकते हैं. इसमें एक संगठन मजबूत होने पर दीर्घकालिक लाभ होगा. संगठन-केन्द्रित नेता पार्टी को बूथ-स्तर तक सक्रिय कर सकते हैं, जिससे भविष्य में वोटिंग मशीनरी मज़बूत होगी। वहीं तत्कालिक राजनीतिक जोखिम भी शामिल है. स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय जिलाध्यक्षों की पब्लिक डिमांड को खारिज करने पर वोट बैंक और स्थानीय कार्यकर्ता नाराज़ हो सकते हैं, जिससे चुनावी दौर में नुकसान हो सकता है। बिहार में सियासी दलों ने 40 जिला अध्यक्षों को बना रखा है. ऐसे में इन 40 नेताओं की मुश्किल बढ़ सकती है.
प्रतिकूल होगा निर्णय !
विश्लेषक मानते हैं कि यदि पार्टी जिलाध्यक्षों की लोकप्रियता को अनदेखा करते हुए केवल नियम लागू कर देगी, तो बिहार में यह कदम प्रतिकूल भी साबित हो सकता है। परंतु यदि कांग्रेस जिलाध्यक्षों को संगठनात्मक, चुनावी नहीं-पर भी प्रभावी भूमिका—जैसे चुनाव प्रबंधन, प्रचार समन्वय या पार्टी ब्रांड एंबेस्डर—देकर संतुलन बनाए रखेगी, तो यह रणनीति काम कर सकती है।
कमलेश की रिपोर्ट