President vs SC:राष्ट्रपति द्रौपदी और सुप्रीम कोर्ट आमने सामने,'मुर्मू ने पूछा- अदालतों के पास ये अधिकार है?

President vs SC:राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के ऐतिहासिक फैसले पर कड़ा रुख अपनाते हुए इसे संवैधानिक मूल्यों और संघीय ढांचे के खिलाफ करार दिया है। ..

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राष्ट्रपति मुर्मू का 'ब्रह्मास्त्र': संविधान की मर्यादा का सवाल- फोटो : social media

Delhi: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और सुप्रीम कोर्ट के बीच छिड़ी जंग ने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया है।सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने राजभवन से लेकर राष्ट्रपति भवन तक खलबली मचा दी। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की खंडपीठ ने राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर निर्णय लेने की डेडलाइन तय कर दी। तीन महीने में हां या ना, वरना बिल 'पास'! मानो सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक पदों को 'टाइम-बाउंड डिलीवरी' का पार्सल बना दिया।

राष्ट्रपति मुर्मू का 'ब्रह्मास्त्र': संविधान की मर्यादा का सवालराष्ट्रपति मुर्मू ने इस 'शाही फरमान' को संविधान की मर्यादा का उल्लंघन बता दिया। उन्होंने कहा, "अनुच्छेद 200 और 201 में कोई टाइम-टेबल नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कौन होता है टाइम-टेबल बनाने वाला?" उन्होंने 'मंजूरी प्राप्त' के कॉन्सेप्ट को भी सिरे से नकार दिया, मानो कह रही हों, "ये कोई पिज्जा डिलीवरी नहीं, संवैधानिक मामला है!

सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन शामिल थे, ने अपने फैसले में कहा था कि राज्यपालों को किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा—या तो उसे स्वीकृति देनी होगी या पुनर्विचार के लिए लौटाना होगा। यदि विधानसभा दोबारा विधेयक पारित करती है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर स्वीकृति देनी होगी। इसके अलावा, यदि विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने में निर्णय लेना होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि तय समय में निर्णय नहीं लिया जाता, तो विधेयक को "मंजूरी प्राप्त" माना जाएगा। इस फैसले ने संवैधानिक पदों की शक्तियों पर एक अभूतपूर्व बाध्यता थोप दी।

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"संविधान की भावना के खिलाफ"

राष्ट्रपति मुर्मू ने इस फैसले को संविधान की मूल भावना के विपरीत बताते हुए कहा, "अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपालों या राष्ट्रपति के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। ये निर्णय राष्ट्र की सुरक्षा, कानूनों की एकरूपता, संघीय ढांचे और शक्तियों के पृथक्करण जैसे जटिल पहलुओं पर आधारित होते हैं।" उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 'मंजूरी प्राप्त' की अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए कहा, "यह अवधारणा संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करती है और राष्ट्रपति व राज्यपालों के विवेकाधीन अधिकारों को सीमित करती है।"

अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 सवाल

राष्ट्रपति ने इस मामले को और गंभीरता से लेते हुए संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक प्रश्नों पर राय मांगी है। यह प्रावधान अत्यंत दुर्लभ मामलों में उपयोग किया जाता है, और इसका चयन इसलिए किया गया क्योंकि केंद्र सरकार और राष्ट्रपति को लगता है कि समीक्षा याचिका उसी पीठ के पास जाएगी, जिसने मूल फैसला सुनाया, और सकारात्मक परिणाम की संभावना कम है। यह कदम संवैधानिक इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ सकता है।

अनुच्छेद 142 पर सवाल: "न्यायपालिका का अतिरेक?"

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के उपयोग पर भी सवाल उठाए, जिसके तहत कोर्ट को पूर्ण न्याय करने का अधिकार है। उन्होंने कहा, "जहां संविधान या कानून में स्पष्ट व्यवस्था मौजूद है, वहां अनुच्छेद 142 का प्रयोग संवैधानिक असंतुलन पैदा करता है।" राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि जब संविधान राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने का पूर्ण विवेकाधिकार देता है, तो न्यायपालिका इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कैसे कर सकती है?

राज्यों का अनुच्छेद 32 का दुरुपयोग?

राष्ट्रपति मुर्मू ने सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें केंद्र-राज्य विवादों के लिए अनुच्छेद 131 के बजाय अनुच्छेद 32 (नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा) का उपयोग क्यों कर रही हैं। उन्होंने तर्क दिया, "राज्य सरकारें रिट याचिकाओं के जरिए सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंच रही हैं, जो अनुच्छेद 131 के प्रावधानों को कमजोर करता है।" यह बयान राज्यों और केंद्र के बीच बढ़ते तनाव को और उजागर करता है।