PATNA - आस्था के महापर्व छठ की महिमा निराली है. ये त्यौहार सदियों से बिहार वासियों के मन में अपनी मिटटी और संस्कृति के प्रति लगाव और महान आस्था का संगम है. यह पर्व उन तमाम बिहारवासियों के लिए और खास हो जाता है जो इस वक्त देश-विदेश के किसी और हिस्से में होते हैं. ऐसी ही कुछ निराली बात बिहार कैडर के आईपीएस अधिकारी डॉ कुमार आशीष के साथ सन 2006-2007 में यहां से 9000 किलोमीटर दूर फ्रांस में हुई थी. जहां उन्होंने बिहार के छठ पर्व का ऐसा वर्णन किया कि सभी लोग इससे प्रभावित हुए और छठ का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया गया।
बिहार के जमुई जिला निवासी आईपीएस ऑफिसर डॉ कुमार आशीष के अनुसार 15 साल पहले जब वो फ्रांस में स्टडी टूर पर गए थे, तब वहां एक संगोष्ठी में कुछ फ्रेंच लोगों ने उनसे बिहार के बारे में कुछ रोचक और अनूठा बताने को कहा तो उन्होंने बिहार के महापर्व छठ के बारे में विस्तार से उनलोगों को समझाया. फ्रेंच लोग इससे काफी प्रभावित हुए और उन्होंने कहा कि इस विषय पर फ्रांस के साथ फ्रेंच बोलने-समझने वाले अन्य 54 देशों तक भी इस पर्व की महत्ता और पावन संदेश पहुंचाना चाहिए. स्वदेश लौटने के बाद आशीष ने इस पर्व के बारे में और गहन अध्ययन एवं बारीकी से शोध कर छठ पर्व को पूर्णत: परिभाषित करनेवाला एक लेख "Chhath Pouja: l'adoration du Dieu Soleil" लिखा जो कि भारत सरकार के अंग ”भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् दिल्ली” के द्वारा फ्रेंच भाषा में "rencontre avec l'Inde" नामक किताब में वर्ष 2013 में प्रकाशित हुई.
लेख में क्या है?
इस लेख में आशीष ने छठ पर्व के सभी पहलुओं का बारीकी से विश्लेषण कर फ्रांसीसी भाषा के लोगों के लिए इस महापर्व की जटिलताओं को समझने का एक नया आयाम दिया है. शुरुआत में वे बताते हैं कि छठ मूलत: सूर्य भगवान् की उपासना का पर्व है. चार दिनों तक चलनेवाले इस पर्व में धार्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक एवं आचारिक-व्यावहरिक कठोर शुद्धता रखी जाती है.
'छठ' शब्द सिर्फ दिवाली के छठे दिन का ही द्योतक नहीं है बल्कि ये इंगित करता है की भगवान् सूर्य की प्रखर किरणों की सकारात्मक ऊर्जा को हठ योग के छह अभ्यासों के माध्यम से एक आम आदमी कैसे आत्मसात कर सभी प्रकार के रोगों से मुक्त हो सकता है? इस पर्व के हर छोटे से छोटे विधान की योगिक और वैज्ञानिक महत्ता है, मसलन, साल में दो बार क्यों मनाया जाता है यह पर्व? सूर्य की उपासना के वक़्त जल में खड़े रहने का आधार है? डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य देने के पीछे का विचार है? सूप और दौरे का पूजा में क्या महत्व है? यह पूजा ऋग्वेद काल से शुरू हुई, महाभारत में धौम्य ऋषि के कहने पर द्रौपदी ने पांचो पांडवों के साथ छठ पर्व कर सूर्य की कृपा से अपना खोया राज्य वापस प्राप्त किया था. बिहार में इसका प्रचलन सूर्यपुत्र अंगराज कर्ण से शुरू होना माना जाता है.
छठ पूजा बिहार के प्रसिद्ध पर्वों में से एक है। छठ पर्व, छठ या षष्ठी पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। आजकल इसका स्वरुप वैश्विक हो चला है, मुंबई, दिल्ली, भोपाल, बेंगलुरु, मॉरिशस, अमेरिका, कनाडा समेत कई स्थानों से इस पावन पर्व को मनाये जाने की सूचना विभिन्न सोशल मीडिया के माध्यमों से होती रहती है. प्रायः हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे गये हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है। छठ पूजा सूर्य और उनकी बहन छठी मइया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद और कुछ शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए। प्रारम्भ में छठ में कोई मूर्तिपूजा शामिल नहीं थी, कालांतर में सूर्यदेव तथा छठी मैय्या की मूर्तियों का प्रचलन भी शुरू हो चुका है ।
त्यौहार के अनुष्ठान कठोर हैं और चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं। इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी (वृत्ता) से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और प्रसाद (प्रार्थना प्रसाद) और अर्घ्य देना शामिल है। परवैतिन नामक मुख्य उपासक (संस्कृत पार्व से, जिसका मतलब 'अवसर' या 'त्यौहार') आमतौर पर महिलाएं होती हैं। हालांकि, बड़ी संख्या में पुरुष इस उत्सव का भी पालन करते हैं क्योंकि छठ लिंग-विशिष्ट त्यौहार नहीं है। कुछ भक्त अपने घर से तालाब-नदी के किनारों के लिए आपादमस्तक लेटते हुए रूप में “दंड देते” हुए भी करते हैं।
भारत में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है।स्त्री और पुरुष समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं। छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं; उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।
छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा के दोनों छोरों पर) सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त आती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते। आइये इसके विभिन्न चरणों को जानते हैं:
नहाय खाय
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रति के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है। भोजन बनाने के लिए प्राय: सेंधा नमक और अन्य सात्विक चीजों का प्रयोग किया जाता है.
लोहंडा और खरना
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस भोजन के उपरान्त व्रती का 36 घंटों का निर्जला उपवास शुरू हो जाता है.
संध्या अर्घ्य
अनुष्ठान के तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, पीसे हुए चावल के लड़ुआ, कचमनिया इत्यादि बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया चीनी का बना हुआ साँचा और विभिन्न प्रकार के स्थानीय फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रति एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है, इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले जैसा दृश्य बन जाता है।
प्रात:कालीन अर्घ्य
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रति वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। सभी व्रति तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं, व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है; प्राय: काफी पुरुष भी इस व्रत को रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को परवैतिन कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रति को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रति फर्श पर एक कम्बल या चादर के सहारे ही रात बिताती हैं। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं। जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की गयी होती है व्रति को ऐसे कपड़े पहनना अनिवार्य होता है। महिलाएँ साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। पुत्र-पुत्री की चाहत रखने वाली और संतान- परिजन की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती हैं। पुरुष भी पूरी निष्ठा से अपने मनोवांछित कार्य को सफल होने के लिए व्रत रखते हैं।लोकपर्व छठ के विभिन्न अवसरों पर जैसे प्रसाद बनाते समय, खरना के समय, अर्घ्य देने के लिए जाते हुए, अर्घ्य दान के समय और घाट से घर लौटते समय अनेकों सुमधुर और भक्ति-भाव से पूर्ण लोकगीत गाये जाते हैं।
आज के परिवेश में छठ पर्व की सार्थकता
रोजी- रोटी या बेहतर परिवेश की आशा में चाहे हम अपनी जननी-जन्मभूमि से कितना भी दूर हो जाये , हम को जीने की ताकत, अपनी कर्मभूमि में कर्मपथ पर टिके रहने की जिजीविषा उस मिट्टी , उन जड़ो से ही मिलती हैं जहाँ हमने अपना बचपन गुजारा होता है । बचपन के संस्कार ही मनुष्य के जीवन भर की आदतें बन जाती हैं और बचपन के त्योहार ही उसके जीवन भर की सौगातें । यहीं कारण है कि साल में जब जब ये त्योहार आते हैं , तो फिर इंसान चाहे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हो, उसे अपने घर की याद और घर जाने की इच्छा होने लगती है ।
लेकिन जहाँ तक छठ की बात है तो ये सिर्फ पर्व नहीं, ये महापर्व है । आस्था का महापर्व । बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोगो के लिए सबसे बड़ा पर्व । फिर चाहे वो दिल्ली एनसीआर और सूरत में साल भर खटने वाला मजदूर हो या बंगलूर के किसी ऑफिस में काम करने वाला सॉफ्टवेयर इंजीनियर, कैलिफ़ोर्निया में बैठा हाई एर्निंग इंटरप्रेन्योर हो या नासा में बैठा वैज्ञानिक--सबके मन में ये इच्छा होती है कि छठ में तो घर जाना ही है । आखिर क्या है ये छठ । क्यों है ये इतना महत्वपूर्ण । न हीं कभी करवा चौथ की तरह किसी बॉलीवुड फिल्म में इसे दिखाया गया है, न ही मीडिया में इसके बारे में चर्चा होती है । ना ही इसमें कोई बड़ा आयोजन होता है ना ही बहुत ज्यादा ताम झाम के साथ कोई जुलूस निकाला जाता है । न हीं इसकी कोई व्रतकथा की किताब होती है ना ही किसी प्रसिद्ध ऐतिहासिक या धार्मिक किताब में इसका विस्तृत विवरण है । लेकिन इन सब के बावजूद भी हर बिहारी के लिए भावनात्मक आलम्ब और उसकी पहचान है ये छठ । आखिर क्या विशेष है इस पर्व में ? क्या है ये छठ ? आइये थोड़ी कोशिश करते हैं इसे समझने की , शायद हमें कुछ विशेष बाते समझ मे आ जाये ।
वास्तव में छठ दिखाता है मनुष्य की कृतज्ञता की भावना को । ये दिखाता है कि किसी के द्वारा हम पर किया गया उपकार हम नहीं भूलते । हम इसी लिए सूर्य को अर्घ्य देते हैं कि हे सूर्यदेव आप हमें जीवनदायिनी प्रकाश देते हैं । आपके प्रकाश और ऊष्मा से ही हमारी पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व है। इसलिए वर्ष में एक दिन ही सही , हम आपका पूजन करते हैं । आपको अर्घ्य देते हैं और आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं ।
इसके अलावा छठ पर्व इस लिए भी महान पर्व, एक महापर्व है कि इसमें कोई पुरोहित और कोई यजमान नहीं होता । सभी बस व्रती ही होते हैं , बस छठ-व्रती । समानता का ऐसा शंखनाद कोई और पर्व करता हो , मुझे तो नहीं पता । आपको है जानकारी तो बताइये । यहीं कारण है कि छठ के घाट पर सब एक साथ अर्घ्य देते है । ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलेगा की ये पहले अर्घ्य देंगे और वो बाद में ।
छठ व्रत की एक बड़ी खासियत ये है कि प्रकृति पूजन के साथ साथ ये महापर्व सबको अपने आप में समाहित करता है। दउरा और सूप बनाने वाले लोगो को भी छठ महत्व देता है । हमे याद दिलाता है कि ये लोग भी सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग है । और मनुष्य ही क्यों , गागर नींबू और सुथनी जैसे परित्यक्त फलों को भी छठ महत्व देता है । छठ व्रत में अंगूर , अनार और कीवी , स्ट्राबेरी जैसे महंगे और आम आदमी से दूर रहने वाले फलों की कोई जरूरत नहीं । घर के आंगन में उग गए निम्बू , आंवला और अमरूद से ही छठ मैया की पूजा हो जाएगी।
पूर्ण शुचिता का ध्यान रखना अत्यावश्यक होता है. इसके अलावा आप अमीर हों या गरीब , अगर आपको व्रत करना है तो आपको अपने हाथ से अपना प्रसाद बनाना होगा । आप को खुद अपनी रसोई साफ करनी होगी , खुद अपना गेहुँ धोकर सुखाना होगा और खुद अपने से प्रसाद का ठेकुआ बनाना होगा । भले ही आप मंगवा सकते हों बाजार से हजारों की मिठाइयां , छठ में आपको अपने हाथ का ठेकुआ ही चढ़ाना होगा ।
लेकिन छठ सिर्फ इतना ही नहीं है । इसके अलावा भी बहुत कुछ है । ये एक धार्मिक आयोजन नहीं, एक सामाजिक जरुरत है। बिहारी डायस्पोरा जो आज एक बहुआयामी और सशक्त समुदाय के रूप में उभर चुका है, जिसके लोग संसार के कोने-कोने में फैलें हुए हैं. जिनकी पहचान – बिहारी अस्मिता छठ से जुडी हुई है. इसके मधुर कर्णप्रिय लोक गीतों से- शारदा सिन्हा की सुरीली आवाज़ से जुडी हुई है, ये लोकगीत हमें बिहार की मिटटी की याद दिलाते हैं, घर के सभी सदस्यों की उपस्थिति में एक परिवार- समाज में होने का अहसास दिलाते हैं. ये आवश्यक है हर उस आदमी के लिए ,जो रोजी रोटी की तलाश में घर से हजारों किलोमीटर दूर पसीने बहा रहा होता है और सोचता है कि छठ में घर जाएंगे- छह महीने पहले ऑफिस में छुट्टी का आवेदन देता है, चार- तीन महीने पहले से रेल के टिकट का रिजर्वेशन करवाता है। ये आस है हर उस माँ-बाप के लिए, जिसे अपने बेटों-बेटियों को देखे महीनों हो जाते हैं और वो इस उम्मीद में रहती है कि छठ में तो बेटा घर आएगा ही, इसी आस में घर-द्वार की रंगाई-पुताई-सफाई भी करवाते हैं । ये छठ विश्वास है हमारी नई पीढ़ी के उन बच्चों के लिए, जो शहर के एकाकी अपार्टमेंट में जीते हैं और जिन्होंने नदी और पोखर को सिर्फ किताबों और टीवी में देखा है । जल ही जीवन है, जल है तो कल है – ये पर्व हमें सदियों से सिखा रखा है. इस पर्व की आवश्यकता साधना और भरोसे की उस परम्परा को जिन्दा रखने के लिए भी है जोस्त्री-पुरुष में समानता की वकालत करता है। छठ ये इंगित करता है कि बिना पंडित- पुरोहित भी पूजा हो सकती है। ये एकलौता अनुष्ठान है जिसमें सिर्फ उगते सूरज को नहीं, बल्कि डूबते सूरज को भी नमन किया जाता है। ये छठ अनिवार्य है आपके लिए-मेरे लिए -हम सबके लिए, जो इसी छठ के बहाने घाट पर गांव भर के लोगो से मिलकर प्रणाम-पाती और हालचाल तो कर लेते हैं । सामाजिक तानेबाने और रिश्तों को जीवित रखने के लिए ये छठ आवश्यक है और बहुत आनंददायक है ।
कौन हैं डॉ कुमार आशीष
डॉ कुमार आशीष भारतीय पुलिस सेवा के 2012 बैच के बिहार कैडर के अधिकारी हैं और वो मधेपुरा, नालंदा, किशनगंज, मोतिहारी तथा रेल मुजफ्फरपुर जिले में एसपी के रूप में अपनी सेवा दे चुके हैं. वर्तमान में सारण, छपरा जिले के एसपी के रूप में जनता के लिए अहर्निश कार्यरत हैं. हाल में ही, भारत में नए अपराधिक कानून BNS के लागू होने के पश्चात, इनके द्वारा सारण के रसूलपुर थानान्तर्गत तिहरे हत्याकांड का त्वरित अनुसन्धान, अनुश्रवन और माननीय न्यायालय द्वारा स्पीडी ट्रायल के माध्यम से सभी आरोपियों को सज़ा दिलवाई गयी, जो पूरे देश में BNS कानून के तहत पहली सजा है. श्री आशीष सामुदायिक पुलिसिंग के विभिन्न सफल प्रयोगों के लिए बिहार सहित पूरे देश में जाने जाते हैं. उनके द्वारा शुरू किये गए कई प्रोग्राम (यथा, आवाज़ दो, कॉफ़ी विथ एसपी, पिंक-पेट्रोलिंग, हॉक-मोबाइल पुलिसिंग, थाना-दिवस, मिशन-वस्त्रदान, पर्यटक-मित्र पुलिसिंग योजना आदि) आमलोगों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं और अपराध नियंत्रण में काफी कारगर भी सिद्ध हुए हैं.
जनता के एसपी के रूप में बनाई पहचान
जन. जनता के बीच वे जनता के एसपी के रुप में जाने जाते हैं, उनके प्रयासों से पुलिस और पब्लिक के बीच की खाई निरंतर कम हुई है. इस वर्ष के विश्वव्यापी कोरोना महामारी काल में उनके नेतृत्व में किशनगंज पुलिस ने हज़ारों मजबूरों तक भोजन-पानी-दवाई-रक्तदान इत्यादि से मानवता की रक्षा में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, जिसकी लोगों ने भूरी-भूरी प्रशंसा की है. वर्ष 2020 में उन्हें एक सामूहिक बलात्कार के मामले के त्वरित अनुसन्धान एवं स्पीडी ट्रायल चलवा कर 07 दोषियों को आजीवन कारावास दिलवाने के लिए देश का प्रतिष्ठित “केन्द्रीय गृह-मंत्री का अनुसन्धान पदक (गुणवत्तापूर्ण अनुसन्धान के लिए) से नवाज़ा गया. ऐसा सम्मान पाने वाले बिहार के पहले आईपीएस अधिकारी होने का भी गौरव उन्हें प्राप्त है. साथ ही मुंबई स्थित “गवर्नेंस नाउ” संस्थान द्वारा उन्हें उनके नवाचार “कॉफ़ी विथ एसपी” प्रोजेक्ट के लिए इंडिया पुलिस अवार्ड से सम्मानित किया गया है.
देश के 50 बेस्ट आईपीएस में शामिल हैं कुमार आशीष
फेम इंडिया पत्रिका द्वारा उन्हें पूरे देश के 50 बेहतरीन आईपीएस अधिकारीयों में “विलक्षण” श्रेणी का माना गया है. हाल में ही उनका शोधपरक आलेख सीबीआई के प्रीमियर जर्नल में प्रकाशित किया है जिसमें उन्होंने वर्तमान समय में डाटा गवर्नेंस की पुलिसिंग के बढती जरुरत पर गहन प्रकाश डाला है. उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से फ्रेंच भाषा में स्नातक, स्नातोकोत्तर तथा पीएचडी भी किया है. पुलिसिंग के साथ पठन-पाठन और लेखन में भी उनकी व्यापक रूचि रही है और अबतक विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर उनके कई दर्जन लेख विभिन्न प्रतिष्ठित जगहों से प्रकाशित हो चुके हैं. डॉ कुमार आशीष बिहार के ही जमुई जिले के सिकंदरा गाँव के निवासी है और पिछले साल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा शराबबंदी को व्यापक तरीके से लागू करने और जन जागरूकता अभियान के माध्यम से लोगों को शराब और नशा छोड़ने की अविरल पहल करने के लिए “उत्पाद पदक” से सम्मानित किये गए हैं.