बिदूपुर-कच्ची दरगाह पुल के लिए राघोपुर के 50 परसेंट लोगों ने दी जमीन, लेकिन नहीं मिला नाम, सरकार पर राघोपुर का अस्तित्व मिटाने का आरोप

बिदूपुर-कच्ची दरगाह पुल के लिए राघोपुर के 50 परसेंट लोगों ने

Patna – आज से गंगा नदी पर बिदूपुर और कच्ची दरगाह के बीच नए सिक्स लेन केबल ब्रिज को आम लोगों के लिए शुरू कर दिया गया। जहां पुल के निर्माण के लिए नीतीश सरकार की तारीफ हो रही है। वहीं इस पर नाराजगी भी जाहिर की जा रही है। इस नाराजगी का कारण पुल नहीं,  बल्कि पुल   का नाम है।  पुल को कच्ची दरगाह-बिदूपुर से जोड़ा जा रहा है। लेकिन, इसमें राघोपुर को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया। पूर्व लोजपा प्रत्याशी राकेश रोशन ने कहा कि यह एक साजिश है। राघोपुर की जनता ने पुल के लिए जमीन  दी। लेकिन राघोपुर को इससे अलग कर दिया गया। 

उन्होंने कहा कि आज कच्ची दरगाह–बिदुपुर सिक्स लेन पुल का उद्घाटन एक ओर जहाँ विकास का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर राघोपुर के अस्तित्व पर गहराता संकट भी है। इस ऐतिहासिक योजना में न तो हमारे सांसद उपस्थित हुए, न ही विधायक। लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि पुल के नामकरण में “राघोपुर” का कोई उल्लेख नहीं किया गया — क्या यह मात्र संयोग है? नहीं! यह स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक साज़िश है।

राघोपुर, जो वर्षों से उपेक्षा का शिकार रहा है, आज जब 5000 करोड़ की परियोजना से जुड़ा, तब भी उसे उसका उचित सम्मान नहीं मिला। 600 करोड़ का मुआवज़ा राघोपुर के किसानों की ज़मीन के एवज में दिया गया, 50% से अधिक भूभाग इसी क्षेत्र से आया, लेकिन फिर भी पुल के नाम से राघोपुर को मिटा दिया गया।

क्या यह राघोपुर के अस्तित्व को समाप्त करने की योजना है?

2026 में प्रस्तावित विधानसभा परिसीमन के बाद यदि राघोपुर का नाम मिटा दिया जाता है, तो यह किसी एक नेता या सरकार की विफलता नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र की हार होगी। पहले जंदाहा विधानसभा को मिटाया गया, अब राघोपुर की बारी है?

इतिहास गवाह रहेगा…

जब इस पुल का ज़िक्र होगा, तो “कच्ची दरगाह” का नाम लिया जाएगा, लेकिन हमारी मातृभूमि “राघोपुर” का नाम इतिहास से ग़ायब रहेगा। क्या यही सम्मान है उन लोगों के लिए जिन्होंने अपनी ज़मीनें दीं? क्या हमारी मिट्टी इतनी सस्ती हो गई? यह वही राघोपुर है जहाँ से मेरे पिताजी स्व. वीर बृजनाथ सिंह जी ने पुल के लिए संघर्ष किया और 5 फरवरी 2016 को शहीद हुए। पुल की आधारशिला 31 जनवरी को रखी गई और 5 दिन बाद उन्हें एके-47 से गोलियों से छलनी कर दिया गया। क्या उनकी कुर्बानी का सम्मान यही है कि राघोपुर का नाम ही मिटा दिया जाए?

राजनीति के नाम पर स्वार्थ का खेल

कुछ लोग आज जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं, लेकिन इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। अगर भविष्य में सरकारें बदलती हैं और वही लोग पुल के नाम को लेकर धर्म का मुद्दा उठाते हैं, तो यह दोहरी राजनीति नहीं तो और क्या है?

मैं आज स्पष्ट कहता हूँ:

“मैं पुल के नाम से सहमत नहीं हूँ और इसे बदलवाने का अभियान तब तक चलेगा जब तक राघोपुर को उसका नाम और सम्मान नहीं मिल जाता।” राघोपुर ने मुझे 25,000 वोटों से नवाज़ा — जो आज मेरे माध्यम से अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहते हैं। मैं यह अभियान अपने जीवन के अंतिम क्षण तक जारी रखूँगा, चाहे कितने भी आरोप लगे।