Bihar Politics: जनता ढूंढे नेता, नेता ढूंढें वारिस! बिहार की सियासत में वंशवाद का जलवा, इन दलों पर परिवारवाद की गहराती छाया

Bihar Politics: बिहार की धरती पर वंशवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। कभी विचार और संघर्ष को सर्वोपरि मानने वाले नेता अपने परिजनों को राजनीति से दूर रखते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं।..

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जनता ढूंढे नेता, नेता ढूंढें वारिस!- फोटो : social Media

Bihar Politics:  बिहार की धरती पर वंशवादी राजनीति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। कभी विचार और संघर्ष को सर्वोपरि मानने वाले नेता अपने परिजनों को राजनीति से दूर रखते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। आज़ादी और लोकतंत्र की जिस धारा को यहां से नई ताक़त मिली थी, वही धारा अब ख़ून के रिश्तों के बंधन में उलझती नज़र आ रही है।जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, वंशवाद का मुद्दा एक बार फिर बहस के केंद्र में है। दिलचस्प यह है कि हर दल दूसरों पर वंशवादी राजनीति का आरोप तो ज़रूर लगाता है, मगर अपने घर के भीतर झांकने से परहेज़ करता है। यह वही धरती है जहां से लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया था, जहां कर्पूरी ठाकुर ने ग़रीब और पिछड़े तबक़े को राजनीतिक आवाज़ दी थी। लेकिन आज उस क्रांति और समाजवाद की परंपरा पर परिवारवाद का धुंध छाता जा रहा है।

एडीआर की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि बिहार के 27% जनप्रतिनिधि परिवारवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। यानी 360 सांसद, विधायक और विधान पार्षदों में से 96 ऐसे हैं, जिनके लिए राजनीति का रास्ता विचारधारा या संघर्ष से नहीं, बल्कि वंश और खानदान से होकर गुज़रा। यह आंकड़ा केवल संख्या नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर गहरा सवाल है क्या अब राजनीति में जनता की नब्ज़ से ज़्यादा अहमियत ख़ून की विरासत की है?

बिहार के बड़े क्षेत्रीय दल भी इस दौर से अछूते नहीं हैं। जेडीयू के 81 जनप्रतिनिधियों में से 25 यानी 31% नेता वंशवादी हैं। आरजेडी में भी यही तस्वीर है—100 में से 31 नेता पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं। छोटे दलों में तो यह अनुपात और भी बड़ा है। हम पार्टी के 6 में से 3 और लोजपा (रामविलास) के 8 में से 4 नेता वंशवादी पाए गए, यानी दोनों दलों में यह आंकड़ा 50% पर टिकता है।

दिलचस्प यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक वंशवादी पाई गई हैं। बिहार के 316 पुरुष जनप्रतिनिधियों में 71 यानी 22% वंशवादी हैं। लेकिन महिला नेतृत्व की तस्वीर और भी गहरी है—44 महिला प्रतिनिधियों में से 25 यानी 57% परिवारवादी हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो जेडीयू में 75% महिलाएं वंशवादी, आरजेडी में 60%, भाजपा में 41% और कांग्रेस में 46% महिलाएं वंशवादी पृष्ठभूमि से आती हैं। समाजवादी पार्टी और तेलुगु देशम पार्टी जैसे राज्यों की पार्टियों में तो यह प्रतिशत 67% से लेकर 77% तक पहुंचता है। यह दर्शाता है कि महिला नेतृत्व को राजनीति में आगे लाने का दावा तो किया जाता है, लेकिन दरअसल उन्हें आगे लाने में भी परिवार और खानदान ही निर्णायक साबित हो रहे हैं।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि वंशवाद की बढ़ती जड़ें लोकतंत्र को कमजोर कर रही हैं। जनता को चुनाव में असली विकल्प नहीं मिल पाता, क्योंकि पार्टियां टिकट बांटने के समय ‘जनता के नायक’ की जगह ‘घराने के वारिस’ को तरजीह देती हैं। इस चलन ने युवा और ग़ैर-वंशवादी नेतृत्व की राह मुश्किल कर दी है।

बिहार की राजनीति आज जिस मुक़ाम पर खड़ी है, वहां सवाल केवल सत्ता या विपक्ष का नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की असल बुनियाद का है। क्या यह राज्य अपने पूर्वजों की तरह विचार और संघर्ष की राजनीति को ज़िंदा रख पाएगा, या फिर वंशवाद की छाया में लोकतंत्र और भी सिकुड़ता चला जाएगा? आगामी विधानसभा चुनाव इस सवाल का आंशिक जवाब ज़रूर देंगे, क्योंकि जनता तय करेगी कि वह “ख़ून के रिश्तों का ताज” चुनेगी या “संघर्ष और विचार की मशाल”।