Bahadurganj Vidhansabha: परंपरा और परिवर्तन के बीच की जंग, 2025 में किसे चुनेगी बहादुरगंज की जनता?
बहादुरगंज विधानसभा सीट, जहां परंपरा और बदलाव की अनूठी कहानी है। कभी कांग्रेस का गढ़ रहे इस सीट पर 2020 में AIMIM के उम्मीदवार ने जीत दर्ज की जो अब आरजेडी में हैं। धार्मिक और सामाजिक समीकरण यहां की राजनीति को जटिल बनाते हैं।

Bahadurganj Vidhansabha: बिहार की सीमांत ज़मीन पर बसी बहादुरगंज विधानसभा सीट, राजनीति की उस प्रयोगशाला जैसी है जहाँ परंपराएं भी मजबूत रही हैं और बदलाव भी तेज़ी से हुआ है। किशनगंज ज़िले की इस सीट पर अब तक 16 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिसमें से 10 बार कांग्रेस ने बाज़ी मारी है। लेकिन 2020 के चुनाव में एक नया तूफ़ान उठा, जिसने पुराने किले को हिला दिया।
इतिहास की तह से वर्तमान की धार तक
बहादुरगंज कभी कांग्रेस का अजेय किला माना जाता था। 2005 से लेकर 2015 तक मो. तौसीफ आलम ने लगातार चार बार जीत दर्ज की। 2005 में निर्दलीय, फिर कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने सीट को मजबूती से थामा। लेकिन 2020 में AIMIM ने मोर्चा संभाला और मोहम्मद अंजार नईमी ने कांग्रेस को हराकर साफ संकेत दिया कि अब बहादुरगंज में कुछ बदल चुका है, हालांकि मोहम्मद अंजार नईमी ने बाद में राजद का दामन थाम लिया। इस सीट ने पहले जनता दल, जनता पार्टी, और PSP जैसे दलों को भी मौका दिया है, लेकिन BJP यहां सिर्फ एक बार जीत पाई और वो भी दशकों पहले। यानी ये ज़मीन "हिंदू वोट" की परंपरागत गणनाओं से थोड़ी अलग सोच रखती है।
मुस्लिम बहुल लेकिन जातीय रूप से जटिल
यहां करीब 66% मुस्लिम वोटर हैं. जिससे ये सीट बिहार की कुछ सबसे मज़बूत मुस्लिम-बहुल सीटों में शामिल हो जाती है। इसके अलावा यादव, रविदास, ब्राह्मण, कुशवाहा और अन्य OBC जातियां भी यहां के चुनावी समीकरणों को उलझा देती हैं। यही वजह है कि यहां की राजनीति सिर्फ धर्म आधारित नहीं , व्यक्तित्व, काम और जुड़ाव भी उतने ही मायने रखते हैं।
विकास या वोटबैंक?
बहादुरगंज एक पूरी तरह ग्रामीण सीट है। 91% से अधिक आबादी गांवों में रहती है। खेती ही आजीविका का मुख्य साधन है, लेकिन कोल्ड स्टोरेज, मंडी, और प्रोसेसिंग यूनिट जैसी मूलभूत सुविधाएं आज तक सपना ही हैं। हर चुनाव में नेताओं के भाषणों में सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य का जिक्र तो होता है, लेकिन ज़मीन पर बदलाव की रफ्तार बहुत धीमी है। रोज़गार की तलाश में बहादुरगंज के युवा दिल्ली, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र की तरफ पलायन करते हैं। स्थानीय स्तर पर कोई ठोस इंडस्ट्री नहीं है न ही कोई बड़ा सरकारी या प्राइवेट प्रोजेक्ट।
2025: फिर से मोर्चा तैयार
2025 का चुनाव बहादुरगंज के लिए सिर्फ एक सीट की लड़ाई नहीं बल्कि एक आइडेंटिटी क्राइसिस है। यहां की जनता अब वादों से ज़्यादा नतीजे चाहती है। सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों से जुड़ा युवा वर्ग अब सवाल पूछ रहा है, सिर्फ जाति या धर्म से नहीं, काम और नीयत से वोट मांगा जाएगा। यह सीट बिहार की राजनीति में आने वाले बदलाव की झलक बन सकती है। जहां परंपरा, पहचान और प्रदर्शन तीनों का संघर्ष है। और 2025 में ये तय होगा कि बहादुरगंज अतीत की तरफ लौटेगा, या भविष्य की तरफ कूच करेगा।