News4Nation Explainer: कोठे पर नजाकत के साथ जवान होती एक शाम, बड़े ही शराफती अंदाज में मुंह में गिलोरी दबाए हीरामंदी की स्वामिनी,खुशबू से तरबतर गिलाफ,हाथों में रजनीगंधा के फूल और सुर्ख आंखों में काम का सुरूर डाले बांका नौजवान से लेकर अधेड़ उम्र के रजवाड़े घराने के रत्नों से सजी महफिल,तभी पर्दे के पीछे से आई घुंघरुओं की छनछनाहट नश्तर बनकर दिल से लेकर दिमाग तक उतर गया और सब बेचैन हो उठे। स्वामिनी मुस्कुराई और बोली हुज़ूरे आला धैर्य रखिए, बस कमसिन गुलबदन का पदार्पण होने ही वाला है, नथ उतराई का मौका उसे ही मिलेगा जो मुंहमांगा इनाम दे जाय। कलि है कलि..आज नथ उतराई होने वाली है। जी हां नथ उतराई..जिसमें पुरुष बड़े हीं सलीके से अनछुई किशोरी के कमसिन बदन के पोर पोर में धीरे धीरे चुभन पैदा कर जब चरमोत्कर्ष पाता है कई काम शास्त्र जैसी कई किताबें साकार हो उठती हैं. उसे ही नथ उतराई कहते है. कोठे की इस रस्म की रवायतें बहुत ही पुरानी है..... कोठों का भी इतिहास सदियों पुराना है और उतनी ही पुरानी हैं यहां की रवायतें. एक जवान लड़की के तवायफ बनने की यात्रा कई सारी रस्मों से होकर गुजरती थी. इसे में ये तीन बेहद ख़ास हैं. अंगिया, मिस्सी और नथ.
ब्रा यानी अंगिया
अंगिया जब लड़की बचपन से निकल कर किशोरवय में कदम रखती है, तो शरीर में कई सारे बदलाव आते हैं. मसलन उसकी छातियां बढ़ने लगती हैं. कोठे की तवायफें इकट्ठा होतीं और एक समारोह किया जाता. इसमें अंगिया पहनाई जाती. अंगिया शब्द का इस्तेमाल उस दौर में ब्रा के लिए होता था. ये किसी लड़की का तवायफ बनने की तरफ पहला कदम होता था.
मिस्सी यानि अपना कौमार्य बेचने के लिए है तैयार
हर दौर में सुंदर काया के नए प्रतिमान गढ़े जाते हैं. जैसे वर्तमान दौर हम चमकते सफ़ेद दांतों को सुंदरता का प्रतीक मानते हैं. लेकिन बीते दौर में होठों पर कत्थे की सुर्खी और काले पड़ चुके दांत बेहतर समझे जाते थे. मिस्सी प्रथा में दरअसल दांतों और मसूड़ों को कृत्रिम रूप से काला किया जाता था. दांतों और मसूड़ों को काला करने के लिए एक खास किस्म का पाउडर काम में लाया जाता था, जो आयरन या कोयले काला चूर्ण और कॉपर सल्फेट का बना होता था. ये कोठे का निजी समारोह था, जिसमें कोई भी बाहरी शख्स शामिल नहीं हो सकता था. कोठे की सबसे सीनियर सदस्य इस काम को अंजाम देती थीं. मिस्सी के बाद नाच-गान और दावत का इंतजाम किया जाता था. यानि किसी लड़की के लिए मिस्सी हो जाने का मतलब था कि अब वो अपनी वर्जिनिटी यानी अपना कौमार्य बाज़ार में बेचने के लिए तैयार है.
नथ उतराई यानि पहली रात की कमाई
समय बदला ज़माने गुजर गया दौर बदला पर नहीं बदला तो पुरुष मानसिकता. तमाम पुरुषों में ये एक गज़ब की धारणा होती थी, होती है कि एक कुंवारी लड़की के साथ सेक्स करना आपके 'मर्द' होने के अहसास में विजेता जैसी अनुभूति. जबकि हकीकत इसके ठीक विपरीत है पहली बार का सेक्स कतई आनंददायी नहीं होता. लेकिन इसे मर्दानगी के तमगे के तौर पर देखा जाता है. कोठे इस तमगे के बदले खूब पैसा पीटते थे. वर्जिन लड़की के लिए खुअलकर बोली लगाई जाती थी. बड़े-बड़े रईस इस बोली में न केवल हिस्सा लेते थे बल्कि हिस्सा लेते है और अपने पैसे की ताकत पर वर्जिन लड़की को पाने की आदमी लालसा में हदों को पार करने से भी गुरेज नहीं करते है.
इसे कोठे में उत्सव की तरह मनाया जाता. लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता. लड़की अपनी नाक में बाएं तरफ एक बड़ी सी नथ पहनती थी. ये नथ उसके कौमार्य का प्रतीक होती थी. जो सबसे बड़ी बोली लगाता, वो उस लड़की के साथ पहली रात हम बिस्तारी करने का कथित सुख पाता है.इस रात के बाद लड़की कभी भी नथ नहीं पहनती थी. अब उसके पास अपना अलग कमरा होता था. वो ग्राहकों के लिए सामान में तब्दील हो जाती. कई बार कोई अमीर या नवाब लड़की को हमेशा के लिए अपने खाते में रख लेता था. इसके लिए वो कोठे को माहवार एक रकम देता था. लेकिन हर लड़की की किस्मत ऐसी नहीं होती थी. वर्तमान समय में इस नथ उतराई की रस्म को अब वेश्वावृति से जोड़ भी देखा जाने लगा है।
वो भी एक दौर था ...
आज तवायफ लफ्ज़ के साथ जो इमेज चस्पां है, उसे देखकर ये यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि कभी तवायफों को बहुत सम्मान की नज़रों से भी देखा जाता था। शायरी, संगीत, नृत्य और गायन जैसी कलाओं में उनको महारत हासिल हुआ करती थी.एक कलाकार के तौर पर इनकी समाज में बेहद इज्ज़त हुआ करती थी.तहज़ीब की तो उन्हें पाठशाला समझा जाता था और बड़े-बड़े नवाबों, सरदारों के साहबज़ादों को सामजिक और व्यवहारिक तहज़ीब के गुर सीखने के लिए उनके पास भेजा जाता था। यह उस ज़माने की बातें हैं, जब औरतों का पढ़ना-लिखना तो दूर घर से बाहर निकलना भी दुर्लभ होता था।उस दौर में तवायफों की ज़िंदगी खुदमुख्तारी की मिसाल हुआ करती थी। उनके पास सारे सामाजिक अधिकार हुआ करते थे. यहां तक कि वे चाहें तो शादी करके घर भी बसा सकती थी. इतिहास के झरोखे से इसकी कई मिसाले और उल्लेख भी मिलते हैं.
भारत में मुगल लेकर आए नथ
भारत के में कान छिदवाने का चलन सदियों पुराना है। लेकिन नाक छेदने का कोई जिक्र नहीं मिलता। लेकिन इजराइल में क्राइस्ट के जन्म से बहुत पहले से ही नाक छिदवाने का चलना था। नथ का इजराइल में बहुत महत्व हुआ करता था। इजराइल-फिलिस्तीन या मध्यपूर्व से नाक के आभूषण ईरान होते हुए भारत में मुगल महलों तक पहुंचे। भारत में नथ पहनने की परंपरा मुगल काल से शुरू हुई जो 16वीं शताब्दी में मध्य एशिया से आए थे। फारसी और अरबी संस्कृतियों की तरह मुगल काल में भी पुरुष और महिलाओं में नाक में बाली पहनने का शौक आम था। मुगल अपने साथ अपनी कला, वास्तुकला, व्यंजन और फैशन लेकर आए जिसमें से नथ भारतीय महिलाओं के साज श्रृंगार का जल्द ही हिस्सा बनी।