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शारदीय नवरात्र बड़हिया में विख्यात 156 फीट ऊंचाई वाली मां बाला त्रिपुर सुंदरी की महिमा है निराली, मंगलवार और शनिवार को लोग टेकते हैं मत्था

शारदीय नवरात्र बड़हिया में विख्यात 156 फीट ऊंचाई वाली मां बाला त्रिपुर सुंदरी की महिमा है निराली, मंगलवार और शनिवार को लोग टेकते हैं मत्था

- भगवती त्रिपुर सुंदरी देवी दुर्गा के ही विविघ रूपों में से हैं एक 

- मां बाला त्रिपुर सुंदरी अपने नाम के अनुसार समस्त देवियों में हैं अपूर्व सुंदरी देवी

लखीसराय... बिहार के लखीसराय जिले के बड़हिया श्रीधर ओझा जी द्वारा स्थापित 156 फीट ऊंचाई वाली संगमरमरी मंदिर में विराजमान मां वाला त्रिपुर सुंदरी माता की महिमा निराली है। जिसको लेकर शारदीय नवरात्र चैती नवरात्र शंतचढी यज्ञ में माता भक्तों की भीड़ उमडती है। बड़हिया के लोगों का मानना है कि यहां का जनजीवन देवी की कृपा से ही समृद्ध और सदा सुरक्षित है। दुर्गा पूजा के दौरान यहां भक्तों की काफी भीड़ उमड़ती है। हालांकि साल भर प्रत्येक शनिवार और मंगलवार को मां को मत्था टेकने श्रद्धालुओं का पहुंचना जारी रहता है।

 मान्यता है कि बड़हिया गांव के ही श्रीधर ओझा जम्मू कश्मीर में स्थापित मां वैष्णों देवी की उपासना किया करते थे। मां ने उन्हें एक बार दर्शन दिया और कहा तुम अपने गांव जाओ मैं वहां आऊंगी। बड़हिया के जिस स्थान पर माता बाला त्रिपुर सुंदरी का भव्य मंदिर स्थापित है, उसी के नजदीक से गंगा बहा करती थी।


शाक्त बंधुओं ने की गांव की स्थापना 

बड़हिया गांव की स्थापना करने वाले श्री पृथु ठाकुर और श्री जय जय ठाकुर जगन्नाथपुरी जाने के क्रम में गंगा पार करके इसी गांव में रात्रि विश्राम के लिए ठहरे थे। कहा जाता है कि दोनों सहोदर भाई मैथिल कुलभूषण थे। दरभंगा के समीप संदहपुर ग्राम में मैथिल ब्राह्मणों के योग्य परिवार में इनका जन्म हुआ था। ये धर्म निष्ठ, शास्त्रज्ञ और त्रिकालदर्शी थे। तंत्र शास्त्र के ये प्रकांड पंडित। जिस स्थान पर माता का मंदिर स्थापित है, वहां इन दोनों भाइयों ने चूहा और बिल्ली की लड़ाई देखी। उन्होंने यह भी देखा कि इस युद्ध में चूहा ने बिल्ली को खदेड़ दिया। उसी वक्त उन्हें यह ज्ञान हो गया कि इस वीर भूमि पर मां त्रिपुर सुंदरी की अलौकिक शक्ति है। भागवत में एक वचन आया है कि गंगा के तट पर भगवती का एक सिद्ध पीठ है, जो मंगलापीठ कहा जाता है। माना यह भी जाता है कि पूरे भारतवर्ष में गंगा के किनारे इस पीठ के सिवा और कोई मंगलापीठ नहीं है। दोनों शाक्त बंधु कुछ महीनों बाद जगन्नाथ जी से जब लौटे तो यहां ठहर कर तेजस्वी डीह की प्राप्ति का मार्ग ढूंढने लगे। उस वक्त इस भूभाग पर पाल वंश का एक प्रतापी राजा इंद्रद्युम्न का आधिपत्य था। राजा अपने इकलौते पुत्र की कुष्ठव्याधि से परेशान थे। राजा ने दोनों शाक्त बंधु श्रीपृथु ठाकुर और श्रीजय जय ठाकुर से पुत्र की नई जिंदगी की भीख मांगी। इस आग्रह को स्वीकार कर शाक्त बंधु ने अपनी तंत्र शक्ति से राजपुत्र को रोग मुक्त कर राजा से इस भूभाग को प्राप्त कर लिया। कहा जाता है कि इस भूभाग पर बढ़ई जाति के लोग रह रहे थे। इसलिए कालांतर में यह इलाका बड़हिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सिद्ध तांत्रिक थे श्रीधर ओझा 

ब्राह्मण वंश में प्रातः स्मरणीय एवं त्रिपुर सुंदरी के प्रतिष्ठाता पंडित श्रीधर ओझा अवतरित हुए थे। हालांकि इनकी जन्मतिथि और काल के संबंध में कहीं कोई लिखित प्रमाण नहीं मिला है। सन 1939 में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित भक्तचरित्रांक में इनके संबंध में कहा गया है कि यह शास्त्रज्ञ, सिद्ध तांत्रिक और श्मशानी साधक थे। यह घर परिवार से दूर गंगा के तट पर कुटिया में रहकर देवी की अनेक सिद्धियों को प्राप्त कर चुके थे। बड़हिया ग्राम निर्माण के कई सौ वर्ष पूर्व से ही वे यहां धर्म प्रचार करते थे। पूरे भारतवर्ष में श्रीधर ओझा ही वैष्णो देवी के प्रतिष्ठाता थे। 

 ...और स्वप्न में आईं मां वैष्णवी 

बड़हिया ग्राम की त्रिपुर सुंदरी की प्राण प्रतिष्ठा करने वाले श्रीधर ओझा का जीवन वृत्त में साम्य दिखता है। श्रीधर ओझा जब गांव आए तब सुप्ता अवस्था में इन्हें रात्रि में स्वप्न हुआ कि प्रातः काल वह ज्योति स्वरूपा त्रिपुर सुंदरी का दर्शन कर पाएंगे और उन्हें वह ज्योति मृतिका के खप्पर में गंगा में प्रवाहित होती दिखेगी। एक दिन स्वप्न में वैष्णो देवी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा मेरी प्रेरणा से ही तुम्हें बड़हिया ग्राम में गंगा तट पर त्रिपुर सुंदरी के दर्शन हुए हैं। वह बाला रूप में सदैव तुम्हारी जन्मभूमि में विराजती रहेंगी। मेरी और मेरी अंश स्वरूपा त्रिपुर सुंदरी के कारण तुम्हारा यश भी सदैव अक्षुण्ण रहेगा। वैष्णवी देवी का आशीर्वाद प्राप्त कर श्रीधर ओझा सपरिवार गांव लौट आये। उन्होंने अपनी तंत्र विद्या और आराधना शक्ति से पुनः देवी के इस गांव में सदैव विराजने की प्रार्थना की।


दो शर्तों के बाद मां हुई विराजमान 

मां त्रिपुर सुंदरी ने दो शर्तों के साथ उनकी विनती स्वीकार कर ली। प्रथम शर्त के अनुसार मां त्रिपुर सुंदरी ने गंगा की मिट्टी की पिंडी में निवास करने की इच्छा प्रकट की और दूसरी शर्त के अनुसार उन्होंने श्रीधर ओझा को जल समाधि लेने का आदेश दिया। उस ज्योति स्वरूपा भगवती को घाट वाले डीह पर श्रीधर ओझा ने मां त्रिपुर सुंदरी को मिट्टी की पिंडी में शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार उस समय देवी की प्रेरणा से मृत्तिका की चार पिंडिया पधारी गई। इन्हीं चार पिंडियों में क्रमशः त्रिपुर सुंदरी, महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का पूजन अर्चन होने लगा। श्रीधर ओझा भगवती के आदेश अनुसार गंगा के तट पर जल समाधि ले ली। उनकी फलीभूत साधना और अलौकिक विजय के कारण इस घाट का नाम विजय घाट पड़ गया। बाद में भक्तों ने उनकी स्मृति में उपचार के उत्तर भाग में एक और मृत्तिका पिंड की स्थापना कर दी। एक बड़े मंदिर में अवस्थित कुल पांच परियों का पूजन होता है।

लखीसराय से कमलेश कुमार की रिपोर्ट 


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