N4N DESK : तेरी शहनाई बोले, सुनके जिया मोरा डोले, जुल्मी काहें को बजायी ऐसी तान रे....इस गीत में धुन देकर इस गीत के साथ खुद को भी अमरत्व की श्रेणी में खड़ा करने वाले शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की बहुत याद आती है। उनके साथ हमने अपने जीवन का बहुत लंबा समय गुजारा है। उनकी एक-एक बातें आज आंखें नम कर जाती हैं। पर होनी को भला कौन टालता है, जो आया है वो तो जाएगा। एक साधारण सी पिपही पर वादन करने वाला कमरुद्दीन दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया और वही आगे चलकर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के नाम से प्रसिद्ध हुए।
आज भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने की लड़ाई लड़ी जा रही है। सभी इसका श्रेय लेने की फिराक में लगे हुए हैं। वहीं बिस्मिल्लाह खां तो भोजपुरी और मिर्जापुरी लोकगीत को ही अपनी शहनाई पर बजाकर और लोगों को सुनाकर अपना मुरीद बनाया। भारत के अलावे बिस्मिल्लाह खां साहब ने लगभग 150 देशों में लोकगीत के माध्यम से अपनी पहचान तो बनायी हीं, शहनाई को भी सुरों की मल्लिका बनाने में सफल हुए। इसीलिए उस्ताद को शहनाई का ‘पीर’ भी कहा गया है। भोजपुरी और मिर्जापुरी गायकी के मुरीद उस्ताद ने सबसे पहले फिल्म गुंज उठी शहनाई में शहनाई वादन कर अपनी पहचान मायानगरी में भी कायम कर लिया। ये बहुत कम लोगों को पता होगा कि कमरुद्दीन से उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कैसे बने। दरअसल, कमरुद्दीन और शम्मसुद्दीन दो भाई थे, दोनों मिलकर वाराणसी में जीविकोपार्जन के लिए “बिस्मिल्लाह एंड पार्टी” को चलाने लगे। लेकिन वर्ष 1951 में शम्सुद्दीन के इंतकाल के बाद कमरुद्दीन अंदर से टूट गए और आगे चलकर कमरुद्दीन ने अपना नाम ही रख लिया बिस्मिल्लाह खां।
वर्ष 1979 में बक्सर जिले में डॉ.शशि भूषण श्रीवास्तव के बुलावे पर डुमरांव महाराज के बड़े बाग में भोजपुरी फिल्म बाजे शहनाई हमार अंगना का मूहूर्त करने के लिए आए थे। उस्ताद के किस्से कहानियां मैं लगातार सुनता रहा मगर कभी भी इनके उपर कुछ पढ़ने के लिए नहीं मिलता था, सो हमने बचपन में ही ठान लिया कि इनके जीवन पर किताब लिखूंगा और वर्ष 2009 में पुस्तक शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां प्रकाशित हुई। उस्ताद ने साधारण से गायन-वादन करते-करते शास्त्रीय वादन तक शहनाई पर कर एक मिसाल कायम कर दिया और यही वजह रही कि इन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजे गए। डुमरांव के ठठेरी बाजार के उल्फातो बुआ के किराए के मकान में हुआ था, जो अब मस्जिद के जिम्मे चली गई है। लेकिन डुमरांव राज द्वारा इनको भिरुंग साह की गली में जो भूमि थी वो भी आर्थिक तंगी की वजह से हाथ से निकल गई। रह गई तो उनकी यादें और डुमरांव राजगढ़ के किले में अवस्थित बांके बिहारी का मंदिर जो आज भी उस्ताद के अस्तित्व का चश्मदीद बना हुआ है।
उस्ताद के जीवनकाल में मैं उस्ताद से मिलने के लिए अक्सर वाराणसी चला जाया करता था। वहां जाने के क्रम में कंडा (जिससे शहनाई का सुर बनता है) लेकर जाया करता था। बहुत खुश होते थे उसे देखकर, कहते वाह गुरु अल्लाह तोके सलामत रखंs.....21 अगस्त 2006 को उस्ताद का इंतकाल हो गया। देश में जाति-धर्म पर राजनीति हो रही है लेकिन बिस्मिल्लाह खां इन सब से इतर संगीत को खुदा की इबादत मानकर लगातार वादन करने वाले इस शख्सियत को तो सभी ने भूला दिया। वर्ष 2009 में मेरी पुस्तक ‘शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां’ लोकार्पित हुई और इसी पुस्तक के लिए 2022 में इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में मेरा नाम दर्ज कर लिया गया।
(लेखक- शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां पुस्तक के लेखक हैं)