शक्ति की अराधना का महापर्व है शारदीय नवरात्र. शक्ति के तीन नाम हैं... महालक्ष्मी, महासरस्वती, और महागौरी..नवरात्र में शक्ति की अराधना का विधान है. पहले दिन मां भवानी के नौ रुपों में से पहले रुप शैल पुत्री की पूजा अर्चना की जाती है. नवरात्र के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है. शैलपुत्रीदेवी दुर्गाके नौ रूप में पहले स्वरूप में जानी जाती हैं. ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं. पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा. नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है. इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को 'मूलाधार' चक्र में स्थित करते हैं. यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है.
भगवान भूतनाथ की सहकारिणी अथवा सहधार्मिणी शक्ति का नाम 'उमा' है. उमा क्या है-”ह्री: श्री: कीर्ति द्युति: पुष्टिरुमा लक्ष्मी: सरस्वती.” उमा श्री है, कीर्ति है, द्युति है, पुष्टि है और सरस्वती और लक्ष्मीस्वरूपा है. उमा वह दिव्य ज्योति है, जिसकी कामना प्रत्येक तमनिपतित जिज्ञासु करता है. “तमसो मा ज्योतिर्गमय” वेद-वाक्य है. जिस समय सभ्यता का विकास भी नहीं हुआ था, अज्ञान का अंधकार चारों ओर छाया हुआ था, उस समय भारत की शक्ति से ही धरातल शक्तिमान हुआ. उसी की श्री से श्रीमान् एवं उसी के प्रकाश से प्रकाशमान् बना. उसी ने उसको पुष्टि दी, उसी की लक्ष्मी से वह धन-धन्य-सम्पन्न हुआ और उसी की सरस्वती उसके अंध-नेत्रों के लिए ज्ञानांजन-श्लाका हुई.भारतीय शक्ति वास्तव में उमास्वरूपिणी है और उन्हीं के समान वह ज्योतिर्मयी और अलौकिक कीर्तिशालिनी है. उन्हीं के समान सिंहवाहना भी. यदि धरातल में पाशव शक्ति में सिंह की प्रधानता है, यदि उस पर अधिकार प्राप्त करके ही उमा सिंहवाहना है, तो अपनी ज्ञान-गरिमा से धरा की समस्त पाशव शक्तियों पर विजयिनी होकर भारतीय मेधामयी शक्ति भी सिंहवाहना है. शैलपुत्री' देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ. पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वे शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं. नवदुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियाँ अनंत हैं. माता शैलपुत्री की पूजा दाहिने हाथ में त्रिशूल धारण करती हैं. यह त्रिशूल जहां भक्तों को अभयदान देता है वहीं पापियों को विनाश करता है. बाएं हाथ में इनके सुशोभित कमल का फूल होता है. जिसे शांति का प्रतीक माना जाता है. मान्यता है कि इनकी पूजा से चंद्र दोष से मुक्ति भी मिल जाती है.
देवी महापुराण के अनुसार मां शैलपुत्री का दूसरा नाम सती भी है. एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ का निर्णय लिया इस यज्ञ में सभी देवी देवताओं को निमंत्रण भेजा लेकिन भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा. देवी सती को उम्मीद थी कि उनके पास भी निमंत्रण जरूर आएगा लेकिन निमंत्रण ना आने पर वे दुखी हो गईं. वह अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहती थीं लेकिन भगवान शिव ने उन्हें साफ इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि जब कोई निमंत्रण नहीं आया है तो वहां जाना उचित नहीं. लेकिन जब सती ने ज्यादा बार आग्रह किया तो शिव को भी अनुमति देनी पड़ी.
प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पहुंचकर सती को अपमान महसूस हुआ. सब लोगों ने उनसे मुंह फेर लिया. केवल उनकी माता ने उन्हें स्नेह से गले लगाया. वहीं उनकी बहने उपहास उड़ा रही थीं और भोलेनाथ को भी तिरस्कृत कर रही थीं. खुद प्रजापति दक्ष भी माता सती का अपमान कर रहे थे. इस प्रकार का अपमान सहन ना करने पर सती योगान्नि में जल कर शरीर का त्याग कर दिया. जैसे ही भगवान शिव को इस बात का पता चला कि क्रोधित हो गए और पूरे यज्ञ को ध्वस्त कर दिया. उसके बाद सती ने राजा हिमालय के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया. जहां उनका नाम शैलपुत्री पड़ा. कहते हैं मां शैलपुत्री काशी नगर वाराणसी में वास करती हैं.सती, भवानी, वृषोरूढ़ा, उमा, पार्वती और हेमवती के नाम से भी जाना जाता है. इन्हें खुशहाली, सफलता और उत्साह का प्रतीक माना जाता है. मां शैलपुत्री को पशु-पक्षियों और जीव की रक्षा करने के लिए जाना जाता है.नवरात्रि के पहले दिन घट स्थापना और मां शैलपुत्री की पूजा का विधान है. इसी दिन से मां का आगमन होता है और देवी पक्ष की शुरुआत होती है. मान्यता है कि मां शैलपुत्री की पूजा से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं.
वहीं नवरात्र का पर्व नारी शक्ति का प्रतीक देवी दुर्गा का समर्पित है.इस पर्व को लेकर ऐसी मान्यता है लंका युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण का वध करने के लिए चंडी देवी की पूजा करने को कहा. इस पर प्रभुश्रीराम ने ब्रह्माजी के बताये अनुसार पूजा की तैयारियां करते हुए चंडी पूजन और हवन के लिए 108 दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था . वहीं दूसरे ओर रावण ने भी विजय तथा शक्ति के कामना के लिए चंडी पाठ प्रारंभ किया. तब देवराज इंद्र ने पवन देव के माध्यम से प्रभु श्रीराम को इस विषय में जानकारी दी. इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया.प्रभु श्रीराम का संकल्प टूटता सा नजर आने लगा और उन्हें ऐसा लगा कि कही देवी रुष्ट ना हो जायें. उस प्रकार के दुर्लभ नीलकमल की तत्काल व्यवस्था असंभव थी, तब भगवान राम को यह बात याद आयी कि मुझे लोग ‘कमलनयन नवकंच लोचन’ भी कहते हैं तो क्यों न संकल्प पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र अर्पित कर दिया जाये और जैसे ही इस कार्य के लिए उन्होंने अपने तुणीर से एक बाण निकालकर अपना आंख निकालने का प्रयास किया, उनके सामने साक्षात देवी माँ ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा- राम मैं तुम्हारी आराधना से प्रसन्न हूँ और तुम्हे विजयश्री का आशीर्वाद देती हुं. ऐसा माना जाता है इसी के बाद से शारदीय नवरात्र की शुरुआत हुई और यहीं कारण है कि नौ दिनों तक नवरात्र मनाने के पश्चात माँ दुर्गा के कृपा के कारण भगवान श्रीराम के लंका विजय के उत्सव में दसवें दिन दशहरा का त्योहार मनाते हुए रावण दहन किया जाता है.