दुविधा-सुविधा की राजनीति में माहिर हैं नीतीश कुमार

DR. SANJAY KUMAR : नीतीश जी का सरकार में शामिल ना होना कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है। उनके राजनैतिक इतिहास पर थोड़ा भी गौर करने पर पता चलता है कि उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति रही है। दुविधा का उपयोग उन्होंने समय-समय पर राजनीतिक फायदों के लिए ही किया है। प्रधानमंत्री के साथ एक चुनावी मंच पर "वन्दे मातरम" न बोलना एक ऐसी ही राजनैतिक दुविधा का उदाहरण है। कष्ट इस बात पर होता है कि भारतीय जनता पार्टी कितनी मासूमियत से उनके हाथों में अब तक खेलती रही है। यह सिलसिला कब तक चलेगा यह चिंता का विषय है। मैंने कुछ ही बिंदुओं को अभी सामने लाने का प्रयास किया है:
(1) नीतीश जी ने जिस तरह कल अतिपिछड़ा और महादलित जैसे शब्दों का शुद्ध जातीय संदर्भ में प्रयोग किया वह चिन्ता का विषय है। वे कैसे इस बात को भूल गए कि नरेंद्र मोदी ने समाज के प्रत्येक वर्ग को अपनी विकास योजनाओं के द्वारा अपना मुरीद बना लिया है? अब बिहार जातिवाद के विषाक्त दौर से बाहर निकल चुका है।
(2) जब नीतीश जी दुबारा 2017 में एनडीए में आये थे, तब अपने एक राज्य सभा सांसद को मंत्री बनाने को लेकर जदयू की पूरी कवायद लोग अभी भी भूले नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले ही एक स्थानीय यूट्यूब चैनल के साथ एक साक्षात्कार में जदयू के राष्ट्रीय महासचिव श्री केसी त्यागी जी ने दुख प्रकट करते हुए बताया था कि 2017 में सरकार में शामिल होने का न्योता ना मिलना जदयू के लिए कितना कष्टकर था।
(3) नीतीश जी ने अभी कहा कि सांकेतिक प्रतिनिधित्व स्वीकार्य नहीं, भागीदारी तो आनुपातिक होनी चाहिए। तो क्या नीतीश जी की भीतरी मंशा यही थी कि बीजेपी बहुमत से दूर रहे और सरकार गठन में दरमोलाई की गुंजाइश बनी रहे और नीतीश जी अनुपातिक प्रतिनिधित्व का आनंद लेते रहें? उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया कि पूर्ण बहुमत वाली भाजपा को जदयू को सरकार में भागीदार बनाना आवश्यक नहीं है। तो क्या दरियादिली दिखानेवाले को असंतोष दिखाना उचित है?
(4) नीतीश जी खुद भ्रम के शिकार हैं। एक ओर नीतीश जी बोलते हैं कि कुछ लोग ये भ्रम फैला रहे हैं कि हमने मंत्रिमंडल में कम से कम तीन सीटों की मांग की। और दूसरी ओर कहते हैं कि अनुपात के हिसाब से भागीदारी मिले । दोनों मांगों में फर्क क्या है?
(5) नीतीश जी का यह कहना कितना हास्यास्पद है कि बिहार का जनादेश बिहार के लोगों की जीत है? जनादेश का अर्थ जनता का आदेश होता है। जीत-हार तो उम्मीदवारों और दलों की ही होती है। कोई यह माने कि यह उनकी जीत है तो यह एक भ्रम है। तो फिर वो और उनके नेतागण अपनी चुनावी सभाओं में मोदी नाम का जाप और केंद्र की योजनाओं की चर्चा क्यों करते थे? इसीलिए ना कि इस चुनाव में जनादेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के 5 वर्ष के कार्यों के लिए मांगा जा रहा था ना कि किसी राजनैतिक दल के मनगढ़ंत जातीय समीकरण के आधार पर उनके वोट मांगने की क्षमता के आधार पर?
(6) नीतीश जी ने माना कि बीजेपी को जब स्वयं पूर्ण बहुमत है, उसके बाद एनडीए को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की आवश्यकता नहीं रहती।
इस पूरे प्रसंग का सबसे हैरतअंगेज पहलू है नीतीश जी के बयान के बाद बिहार बीजेपी नेतृत्व का चुप्पी साध लेना । यह चुप्पी बिहार के उस जनमानस के साथ घोर अन्याय है जिसने बीजेपी के सिद्धांतों और नमो के व्यक्तित्व से रीझ कर "फिर एक बार मोदी सरकार" के लिए 40 में 39 सीटें दी है। अब कोई मुगालते में नहीं रहे । अटल-आडवाणी के त्याग और नरेंद्र मोदी के राजनैतिक व्यक्तित्व से सजी भाजपा आज पूरे भारतवर्ष की एक बड़े वर्ग की जनआकांक्षाओं का एकमात्र वाहक बन चुकी है और यह बात "दुविधा-सुविधा" की राजनीति करने वालों को भी जितनी जल्दी समझ आ जाये अच्छा है ।
लेखक जानेमाने स्तंभकार व शिक्षाविद् हैं। यह उनके निजी विचार