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सर्वोच्च न्यायालय का नजीर का फैसला, पैसे लेकर सवाल पूछना और वोट करना संसदीय लोकतंत्र के लिए जहर जैसा -सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय का नजीर का फैसला, पैसे लेकर सवाल पूछना और वोट करना संसदीय लोकतंत्र के लिए जहर जैसा -सुप्रीम कोर्ट

दिल्ली: देश की सबसे बड़ी अदालत ने  अपनी 26 साल पहले की गलती का परिमार्जन कर लिया है. 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अविश्वास मत में अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए सांसदों को खरीदा था. नरसिम्हा राव के कीचेन कैबिनेट के सदस्यों ने सांसद तो कई खरीदे थे लेकिन झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसद शिबू सोरेन, शलेन्द्र महतो, सूरज मंडल, साइमन मरांडी 55 -55 लाख रूपए लेने के सबूत के साथ पकड़े गए थे. उन्होंने रिश्वत में मिले रुपए अपने बैंक खातों में जमा करवा दिए थे.रिश्वत की राशि चारों सांसदों ने एक ही दिन बैंक खातों में जमा किया था, इसलिए कोई इंकार भी नहीं सकता था.  चारों सांसद उन रुपयों का कोई हिसाब नहीं दे पाए थे.  मामला सुप्रीमकोर्ट में गया, उन चारों ही सांसदों ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मुकदमे की सुनवाई के दौरान स्वीकार किया था कि 1993 में उन्हें विश्वासमत के पक्ष में मत देने के लिए कांग्रेस पार्टी ने धन दिया था. जब सुप्रीम कोर्ट को लगा कि उसके पहले दिए गए फैसले की विसंगति से लोकतंत्र को हानि हो सकती है तो पहले दिये फैसले को भी पलट दिया.  आम आदमी की तरह ही सांसदों और विधायकों को रिश्वत के मामले में छूट के लिये कोई विशेषाधिकार काम नहीं करेगा.

 सुप्रीम कोर्ट की सात जजों वाली बेंच ने एक मामले में निर्णय सुनाया कि देश की संसद अथवा विधानमंडल में भाषण या वोट के लिये रिश्वत लेने के मामले में सांसदों और विधायकों को विशेषाधिकार के अंतर्गत इम्यूनिटी नहीं दी जा सकती.  कोर्ट ने माना कि संविधान के तहत मिला विशेषाधिकार सदन को सामूहिक रूप से सुरक्षा प्रदान करता है.  ऐसे मामलों में वर्ष 1998 में आए एक फैसले को जनप्रतिनिधि ढाल बनाते रहे हैं.

तब पीवी नरसिम्हा राव वर्सेस भारत गणराज्य मामले में शीर्ष अदालत की बैंच ने माना था कि संसद और विधानमंडल में रिश्वत लेकर वोट देने और भाषण देने के मामले में जनप्रतिनिधियों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.  सोमवार को दिए फैसले के बाबत मुख्य न्यायाधीश का मानना था कि हम नरसिम्हा राव फैसले से सहमत नहीं है.  साथ ही उस फैसले को निरस्त करते हैं जिसमें घूस लेने के मामले में जनप्रतिनिधि बचाव के लिये अपने विशेषाधिकार को कवच बनाएं.  पहले का फैसला संविधान के कुछ अनुच्छेदों का अवहेलना भी करता है. 

 निश्चित रूप से शीर्ष अदालत का यह फैसला दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में साफ-सुथरी राजनीति की दिशा भी तय करेगा. 

सुप्रीमकोर्ट की पांच जजों की बेंच ने बहुमत के आधार पर संविधान के अनुच्छेद 105(2) में सांसदों को मिले विशेषाधिकार का हवाला देकर मुकद्दमे को ही रद्द कर दिया था. यह फैसला नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री पद से हटने के दो साल बाद आया था. इस दौरान तीन सरकारें बदल चुकी थीं.

नरसिम्हा राव के सरकारी आवास को जेल में बदलने की तैयारियां भी शुरू हो गई थीं, लेकिन पांच जजों की बेंच ने अनुच्छेद 105(2) को आधार बना कर सभी आरोपियों को बरी कर दिया.

पांच सदस्यीय बेंच के तीन जज इस अनुच्छेद के तहत सांसदों को मिलने वाली विशेषाधिकार की छूट से सहमत थे, लेकिन दो जज सहमत नहीं थे| यह अनुच्छेद सांसदों को संसद के भीतर किए गए किसी भी भाषण या मतदान पर क़ानून के दायरे से बाहर करता है| इसी तरह का एक प्रावधान अनुच्छेद 194 (2) में भी है, जो विधायकों को भी इसी तरह का विशेषाधिकार देता है.


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