बिहार उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश उत्तराखंड झारखंड छत्तीसगढ़ राजस्थान पंजाब हरियाणा हिमाचल प्रदेश दिल्ली पश्चिम बंगाल

LATEST NEWS

लोकसभा चुनाव 2024 से पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के मायने, पीएम मोदी का चेहरा, दिग्गजों ने लड़ा चुनाव... जनता के मिजाज पर इनसाइड स्टोरी

लोकसभा चुनाव 2024 से पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के मायने, पीएम मोदी का चेहरा, दिग्गजों ने लड़ा चुनाव...  जनता के मिजाज पर इनसाइड स्टोरी

पटना- पांच राज्यों - छत्तीसगढ़, मिजोरम, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना - के  चुनावों को लोकसभा चुनावों से पहले का “सेमीफाइनल” माना जा रहा था. इसमें भाजपा को बम्पर जीत मिला है. तो इसके मायने भी है. मध्‍य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्‍थान में बीजेपी को स्‍पष्‍ट जनादेश मिला है. जनता ने बीजेपी को चुनने में 'इफ एंड बट' की गुंजाइश नहीं छोड़ी. ये चुनाव कई मायनों में बहुत अहम थे. इन्‍हें अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले 'सेमीफाइनल' बताया जा रहा था. तो इस सेमीफाइनल में बीजेपी ने पीएम मोदी को चेहरा बनाया था. उसने किसी भी राज्‍य में पहले से सीएम के चेहरे का ऐलान नहीं किया था. यहां तक पार्टी ने अपने कई केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा चुनाव में उतार दिया था, इसमें बहुत बड़ा रिस्‍क था लेकिन, जोखिम लेना बीजेपी के पक्ष में साबित हुआ. 2024 से पहले इस जीत के काफी ज्‍यादा मायने हैं.जनता के मिजाज़ में बदलाव विचारधारा में भी हुआ है. दल सिद्धांत केवल सत्ता है न कि जाति. कांग्रेस विगत में विभिन्न जातीय समीकरण बनाने की कोशिश कर चुकी है, उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण-दलित-मुस्लिम, आंध्र प्रदेश में रेड्डी-दलित-मुस्लिम, कर्नाटक में अल्पसंख्यक-पिछड़ा वर्ग-दलित आधारित ‘अहिन्दा’ नामक युगम, गुजरात में क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुस्लिम का ‘खाम’ नामक प्रयोग, केरल में कांग्रेस ने मुस्लिम और ईसाई दलों से गठबंधन किया है तो और अन्य जगहों पर भी इसी किस्म का गठजोड़ बैठाया. तमाम प्रयासों के बावजूद, पार्टी सिकुड़ती गई क्योंकि पहचान-आधारित यह राजनीति विपक्ष के लिए प्रतिक्रियात्मक-गोलबंदी के लिए उत्प्रेरक  करने वाली बनी. वस्तुत इसे राजनीतिक जरूरत मानना बेमानी साबित कर दिया है. कांग्रेस को वीएन गाडगिल के शब्दों में   मुस्लिम पहचान की राजनीति करने से हिंदुत्व संगठनों के एकजुट होने को बल नहीं मिलेगा, लेकिन यही हुआ और वह भी किस कदर.

कांग्रेस पांच राज्यों के चुनाव में  इस बार न केवल सत्ताधारियों के प्रति मतदाताओं के मोहभंग की आसान फसल काटने को तत्पर रही है बल्कि जाति-पहचान का कार्ड भी खेलती रही है. बिहार के जातीय जनगणना का कार्ड खेल कर राहुल गांधी ने  शायद यह चाल इसलिए चली कि  किसी राज्य में जीत दिला भी दे, जहां उसने जाति-आधारित जनगणना करवाने का वादा किया हो. आगे राष्ट्रीय स्तर पर भी पिछड़ी जातियों की पहचान आधारित राजनीति करने की कोशिश इस उम्मीद में करे कि इससे हिंदुत्व के घेरे में सेंध लग सके.जिस तरह मुस्लिम कार्ड ने हिंदू-कार्ड को वैधता दी थी और हिंदू वोट बैंक बना डाला, जोकि 1990 के आखिरी सालों तक भी किसी की कल्पना में नहीं था, ठीक वैसे ही जातीय-पत्ता भी धार्मिक एजेंडे को वैधता देने में प्रभावी हो सकता है– लेकिन भाजपा ने इसे जातीय कार्ड बनाने से रोक दिया.

मंडल मसीहा’ वीपी सिंह भी राजीव गांधी को केवल जाति-कार्ड खेलकर नहीं हरा पाए थे– लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटों वाली शक्तिशाली राजीव सरकार की हार बोफोर्स तोपों में रिश्वतखोरी के इल्जाम से ही हुआ था. ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’ का नारा शुचिता, एक राजकुल से संबंधित इंसान द्वारा व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की छवि के लिए था.यह तत्कालीन सरकार से मतदाता की नाराजगी को भुनाने की राजनीति थी. सत्ता में बने रहने के खातिर जाति-आधारित राजनीति वाले मंडल-पैंतरे ने सिर्फ संघ परिवार के धार्मिक एजेंडा को वैधता प्रदान की थी.आरएसएस ने जाति-भावना का तोड़ केवल धार्मिक-भावना को प्रधान बना दिया.भाजपा के सांसदों की संख्या 1989 में 85 से बढ़कर 1991 में 120 हो गई. इसी बीच, पिछड़ी जातियों में बहुसंख्यक वर्ग के अब तक गैर-आजमाए और  लालू यादव और मुलायम सिंह का उद्भव  अमल करने वाले  प्रतीक के तौर पर हुआ.

उच्च जाति 1990 के दशक के वह ‘विजातीये’ थे जिन्होंने गंगा के मैदान में स्वतंत्रता के बाद से राज किया. उच्च जाति को विजातीय मानने की भावना उस वक्त जाकर घटी जब पिछड़ी जाति, खासकर मुलायम सिंह और लालू के कुनबे, 1989-90 से गांगीय-प्रदेश में सुशासन देने में नाकाम रहे। साथ ही, चुनावी रूप से, संघ परिवार मध्ययुग में कथित उत्पीड़न के प्रतीक वर्ग को भारतीय राजनीति में बतौर ‘विजातीय’ पेश करने में सफल रहा और यहां किसी भी प्रकार की शैक्षणिक या सैद्धांतिक युक्ति यह बताने में असमर्थ है कि एक किस्म की नफरत दूसरे से बेहतर कैसे है. जातीय जनगणना पर नीतीश के कार्ड को चार राज्यों में कांग्रेस के भोथरी हथियार साबित कर चुके जनता के लिए लोकसभा चुनाव में नए ‘वर्चस्ववादी’ को हराने को एकजुट होने की कवायद अब 6 दिसम्बर से होने वाली है. विधान सबा चुनाव ने साबित कर दिया है कि अमुक जाति बनाम अन्य वाला मामला अब सफल नहीं रहने वाला है.

इस चुनाव में भाजपा ने आहिस्ता ने एक अन्य ‘विजातीय’ पेश कर दिया वह है भ्रष्ट राजनेता. छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावी प्रचार में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और अशोक गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत के कथित भ्रष्टाचार को तुरुप का पत्ता बनाया गया. यदि सत्तासीन दल के प्रति लोगों का झुकाव बरकरार न हो, तो कोई चुनावी हथियार काम नहीं आ सकता है. कांग्रेस के हथियार से इस विधानसभा में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है.और इसी में भारतीय लोकतंत्र की मजबूती निहित है.

कांग्रेस ने इन चुनावों में जाति जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाकर पेश किया था लेकिन, प्रधानमंत्री ने 'नई' जातियों बनाकर और बताकर विरोधी दल के इस हथियार को कुंद कर दिया. पीएम ने दो-टूक इन चार जातियों को फोकस में रखने का प्‍लान जाहिर कर दिया. इन जातियों में महिलाएं, किसान, गरीब और युवा शामिल हैं. इस तरह विधानसभा चुनावों ने यह भी दिखा दिया कि मंडल 2.0 को मुद्दा बनाकर अब चुनाव नहीं जीता जा सकता है. नब्‍बे का दौर कुछ और था. अब कुछ और. ऐसे में अगले साल लोकसभा चुनाव में विरोधी दलों को इसके आगे का कुछ सोचना होगा. पीएम ने एकसाथ देश के सबसे बड़े वर्ग की समस्‍या को एड्रेस करने की बात कह दी है. 

 हवा में रस्सी खड़ा करके उस पर चढ़ने वाले भारतीय जादुई करतब में प्रभाव सदा किसी जादूगर या फ़कीर का रहा है न कि रस्सी या जमूरे का, नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के बाद पांच राज्यों के विधानवभा चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया है.

Suggested News