Bihar Election 2025: अररिया के बसंतपुर गांव की व्यथा और चुनावी चेतावनी! स्थानीय लोगों ने टांगा बोर्ड, लिखा, रोड नहीं तो वोट नहीं

Bihar Election 2025: अररिया के बसंतपुर गांव के निवासियों ने लगाया बोर्ड — "रोड नहीं तो वोट नहीं"। बारिश में टापू बनता है गांव, जानमाल का खतरा और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता पर ग्रामीण नाराज़।

रोड नहीं तो वोट नहीं- फोटो : social media

 Bihar Election 2025: बिहार के अररिया जिले से महज़ दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित बसंतपुर गांव का वह बोर्ड जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा है “रोड नहीं तो वोट नहीं”। स्थानीय जनप्रतिनिधियों और प्रशासन के समक्ष ग्रामीणों की गहन नाराज़गी का एक सख्त प्रतीक बन गया है। यह बोर्ड सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि वर्षों की उपेक्षा, बार-बार के वायदों और तबाही का कड़वा सार है। अररिया के कई ब्लॉक कुर्साकांटा, सिकती और पलासी की तरफ जाने के रास्ते में यह जगह आती है और यही मार्ग सांसद, विधायक, डीएम, डीडीसी, एसडीओ सहित कई वरिष्ठ अधिकारियों के आने-जाने का मार्ग भी है। बावजूद इसके स्थानीय लोगों का कहना है कि इन अधिकारियों की नजरें इस बोर्ड और गांव के हालात पर नहीं टिकतीं; और जब वे आते हैं तो केवल वादे ही छोड़कर चले जाते हैं।

स्थानीय ग्रामीणों ने मीडिया से बातचीत में जो दर्द बयां किया, वह तस्वीर बेहद गंभीर है। बारिश में यह पूरा इलाका टापू बन जाता है। मुख्य सड़क से कटा हुआ, बाहरी दुनिया से जुड़ने के लिए नाव ही सहारा। पर नावें भी सुरक्षित नहीं; कई बार नाव पलटने की घटनाएं हुईं हैं, जिनसे लोगों की जानें गई हैं और अनेक अकेलेपन में जीवन बदल गया है। यही कारण है कि लोग अब हार-माने नहीं बैठे—उन्होंने एक निर्णायक घोषणा कर दी है: जब तक सड़क नहीं बनेगी, वे वोट नहीं देंगे। यह घोषणा न केवल स्थानीय रोज़मर्रा की समस्या का नतीजा है बल्कि यह लोकतांत्रिक जवाबदेही की मांग भी है — वोट का अधिकार तभी प्रभावी होता है जब वह एकजुट और जवाबदेह प्रतिनिधियों से जुड़ा हो।

यह बोर्ड और ग्रामीणों का हठ, स्थानीय प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के लिए सीधा सवाल है: क्या विकास योजनाओं के वादे केवल भाषणों तक सीमित रहेंगे, या चुनावी दायित्वों के चलते वास्तविक बदलाव के लिये संसाधन और संकल्प दिया जाएगा? बसंतपुर की यह छोटी-सी जगह बड़े राजनीतिक और प्रशासनिक सवाल खड़े कर रही है — और समय अब निर्णायक है।

रोज़मर्रा की जिंदगियां कैसे प्रभावित हो रही हैं 

बसंतपुर और आसपास के गांवों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जो बातें उजागर करती है, वे किसी भी संवेदनशील प्रशासन के लिए अलार्म बेली की तरह काम करनी चाहिएं। वर्षा ऋतु में तालाब और नाले उफान पर आ जाते हैं और गांव टापू में बदल जाते हैं — घरों से निकालने के लिए नाव ही एकमात्र साधन बन जाती है। पर नाव का भरोसा भी कितना सुरक्षित है, यह अरुण शर्मा का वाकया दिखाता है: 28 सितंबर 2024 को तालाब पार करते हुए उनकी नाव पलट गई और उनका पैर टूट गया। वह कहते हैं कि उस दिन से उनकी ज़िन्दगी बदल गई—अब भी वे लंगड़ा कर चलते हैं। सिर्फ उनकी नहीं, कई परिवारों की ज़िन्दगी इस तरह घातक हादसों के कारण प्रभावित हुई है।

स्थानीय लोगों को उठाना पड़ता है जोखिम

ग्रामीणों ने बताया कि कभी-कभी परिंदों के लिए इस्तेमाल होने वाला केला का थन ही नाव की तरह चल पड़ता है — यह बताता है कि असल में कितनी गंभीरता से स्थानीय लोगों को जोखिम उठाना पड़ता है। यदि यह मार्ग पक्का सड़कों और चार-स्पैन पुल से जुड़ता तो गांवों का संपर्क सुगम हो जाता।  बच्चे स्कूल जा पाते, बीमारों को समय पर इलाज मिल पाता, खेती का माल और लोकल आर्थिक गतिविधियां पटरी पर चल पातीं। लेकिन सड़क और पुल की अनुपस्थिति ने आदर्श सेवाओं और रोज़गार तक को खंडित कर दिया है।

बुजुर्गों की आपबीती

यहां के बुजुर्ग दशकों से चुनावों और वायदों को देख चुके मिश्रानन्द चौधरी (72 वर्ष)—कहते हैं कि उन्होंने इतने चुनाव देख लिए लेकिन सड़क का सपना कभी पूरा नहीं हुआ। यह निराशा सिर्फ व्यक्तिगत कष्ट नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक पीड़ा में तब्दील हो चुकी है। स्कूलों में नामांकन छूटते हैं, इलाज के लिए विलम्ब से मौतें होती हैं, और महिलाएँ-अन्य समुदाय बाहर जाकर काम नहीं कर पाते। ग्रामीणों की बातों से यह स्पष्ट है कि विकास के मौके छीन लिए गए हैं और इससे अगली पीढ़ी के अवसर भी सीमित हो रहे हैं।