Bihar assembly election 2025: दिवाली और छठ के बीच चुनाव प्रचार, उम्मीदवारों के लिए वरदान या चुनौती? समझें पूरी बात

Bihar assembly election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 दिवाली और छठ के बीच आयोजित हो रहे हैं, जिससे उम्मीदवारों को चंदे की बढ़ती मांग, मतदाताओं की अपेक्षाओं और त्योहारों के आर्थिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025- फोटो : SOCIAL MEDIA

Bihar assembly election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 इस बार एक अनोखे संयोग के साथ आ रहे हैं। दिवाली और छठ जैसे राज्य के सबसे बड़े त्योहारों के बीच में। आमतौर पर यह समय खुशियों, मेलजोल और सामूहिक आयोजनों का होता है, पर इस बार यह राजनीतिक हलचल का केंद्र भी बन गया है।

त्योहारी मौसम में जहां लोग दिल खोलकर खर्च करते हैं, वहीं उम्मीदवारों के लिए यह समय आर्थिक दबाव और सामाजिक अपेक्षाओं का दुगना बोझ लेकर आया है। पहले चरण का चुनाव प्रचार इसी उत्सवी माहौल में होने वाला है, जिससे राजनीतिक समीकरण, प्रचार रणनीतियां और मतदाताओं तक पहुंचने के तरीके, तीनों बदल गए हैं।

चंदे की बढ़ती डिमांड

त्योहारों के मौसम में चंदे की परंपरा कोई नई बात नहीं है — पर चुनावी साल में इसका रूप अलग हो जाता है।छठ घाटों की सजावट, लक्ष्मी पूजा पंडालों, और मूर्तियों की स्थापना जैसे आयोजनों में उम्मीदवारों से भारी दान की उम्मीद की जाती है। इस साल, यह उम्मीद प्रतिस्पर्धा में बदल चुकी है। आयोजक खुलकर बताते हैं कि “फलां उम्मीदवार” ने कितना दिया — जिससे बाकी प्रत्याशी पर बराबर या उससे ज़्यादा देने का दबाव बनता है।त्योहार और चुनाव के इस मेल से चंदे का चरित्र भी बदल गया है — अब यह सिर्फ धार्मिक आयोजन का समर्थन नहीं, बल्कि जनसंपर्क और राजनीतिक “निवेश” का हिस्सा बन गया है। हर रुपया न केवल उत्सव का खर्च है, बल्कि एक वोट में तब्दील होने की उम्मीद भी।

प्रत्याशियों की मुश्किलें उत्सव के बीच चुनावी दबाव

उम्मीदवारों के लिए त्योहारों के बीच प्रचार एक रोमांचक लेकिन महंगा सौदा है। दिवाली 20 अक्टूबर को है — और यही नामांकन वापस लेने की अंतिम तारीख भी। यानी एक ओर फटाखों और रोशनी की गूँज होगी, तो दूसरी ओर प्रत्याशियों की भागदौड़।इस दौरान मतदाताओं की अपेक्षाएँ भी चरम पर होंगी। बच्चे पटाखों की मांग करेंगे, परिवार मिठाइयाँ, और गरीब मतदाता छठ के लिए पूजन सामग्री या साड़ी की आस रखेंगे। नेताओं को अपने खर्च में भारी इजाफा करना पड़ेगा, क्योंकि कोई भी मतदाता समूह नाराज न हो यह चुनावी रणनीति का मूल बन जाएगा।

इमोशनल अपील का समय

राजनीतिक दलों की नज़र से देखा जाए तो यह इमोशनल अपील का समय है। दिवाली की मिठास और छठ की श्रद्धा के साथ जुड़ने का मौका कोई खोना नहीं चाहता।परंतु, आर्थिक दृष्टि से यह अवधि हर प्रत्याशी के लिए भारी है — प्रचार वाहन, बैनर, प्रचारकर्मियों का भुगतान और त्योहार-संबंधी दान, सब कुछ एक साथ आ जाने से प्रचार बजट पर अभूतपूर्व दबाव बनता है।राजनीति में उदार दिखना एक रणनीति है, लेकिन इस साल यह रणनीति आर्थिक युद्ध में बदल चुकी है।

त्योहारी मौसम का लाभ प्रवासी मतदाताओं की वापसी

इस चुनावी समय में त्योहार उम्मीदवारों को कुछ अप्रत्याशित फायदे भी दे रहे हैं। दिवाली और छठ के लिए घर लौटने वाले प्रवासी मजदूर इस बार मतदान अवधि तक अपने गांवों में रुकेंगे। आमतौर पर यह वर्ग शहरी या औद्योगिक इलाकों में काम करता है और अक्सर वोट डालने के समय मौजूद नहीं होता। लेकिन इस बार, 6 नवंबर को पहले चरण और 11 नवंबर को दूसरे चरण के मतदान के कारण, बड़ी संख्या में प्रवासी मतदाता भी मतदान में हिस्सा लेंगे।

प्रत्याशियों के लिए गोल्डन ऑपर्च्युनिटी

यह प्रत्याशियों के लिए गोल्डन ऑपर्च्युनिटी है। बिहार में प्रवासी मजदूर सिर्फ़ मतदाता नहीं, बल्कि अपने गांवों के सामाजिक-मतनिर्माता भी होते हैं। वे बाहर के अनुभव लेकर आते हैं, स्थानीय लोगों को प्रभावित करते हैं, और पारिवारिक-स्तर पर वोट की दिशा तय करते हैं।राजनीतिक दल अब गांवों में “घर वापसी मतदाता अभियान” चला सकते हैं — जिससे प्रचार सिर्फ स्थानीय लोगों तक सीमित न रहे बल्कि लौटे हुए प्रवासियों के माध्यम से भी संदेश फैले।इस प्रकार, जो त्यौहार आर्थिक दबाव लाया है, वही उम्मीदवारों को संभावित वोट-बूस्ट भी दे रहा है।