Bihar Politics: ये 5 बड़े कारण नीतीश के लिए भाजपा बनी मजबूरी, लालू के साथ दोस्ती करना पड़ेगा महंगा

केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार है। नीतीश के पाला बदलने के बावजूद, वर्तमान में उसकी स्थिरता को कोई खतरा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि 2029 तक केंद्र के साथ संबंध बनाए रखना उनकी राजनीतिक भलाई के लिए आवश्यक है।

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नीतीश के लिए भाजपा बनी मजबूरी!- फोटो : Hiresh Kumar

Bihar Politics:  बिहार में अगले वर्ष विधानसभा चुनावों के संदर्भ में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा की गई एक टिप्पणी ने विपक्ष के बीच हलचल मचा दी है। इस पर अटकलें लगाई जाने लगीं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गुस्से में हैं और संभवतः लालू यादव की आरजेडी के साथ फिर से गठबंधन कर सकते हैं। हालांकि, पांच ऐसे कारण हैं, जो संकेत करते हैं कि नीतीश के लिए इस बार पाला बदलना आसान नहीं होगा।  एक टीवी साक्षात्कार में जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित  शाह से बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए के मुख्यमंत्री के चेहरे के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, 'हम मिलकर निर्णय करेंगे। निर्णय लेने के बाद आपको सूचित करेंगे।' इसके बाद से बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने भी इस मुद्दे पर बोला लेकिन बाद में इसपर स्पष्टीकरण भी दिया। इसके बाद सूबे में कयासों का बाजार गर्म है।

नीतीश का विकल्प नहीं

लालू यादव अपने बेटे और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए हैं।  तो वहीं नीतीश कुमार बिहार की राजनीति के एक मंझे हुए खिलाड़ी हैं। उन्हें यह भलीभांति ज्ञात है कि विधानसभा चुनावों के लिए एनडीए में उनके नेतृत्व का कोई विकल्प नहीं है। बीजेपी को यह भी पता है कि उन्होंने महिला मतदाताओं को एक महत्वपूर्ण वोट बैंक में बदल दिया है। इस प्रकार, वह आश्वस्त हैं कि विधानसभा चुनावों तक एनडीए की कमान उनके हाथ में ही रहेगी।

नीतीश राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी

तो वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश ने  73 वसंत देख लिया है। यदि उम्र का प्रभाव नहीं होता, तो वह पहले से ही तेजस्वी यादव के नेतृत्व को स्वीकार करने की बात नहीं करते। ऐसे में, वह लालू के साथ फिर से जाने का विचार क्यों करेंगे? यदि नीतीश ने कभी तेजस्वी को नेता मानने की बात कही है, तो यह संकेत करता है कि उनके मन में सक्रिय राजनीति से रिटायरमेंट का विचार कहीं न कहीं पनप रहा है। यदि बिहार में भी महाराष्ट्र जैसा दृश्य दोहराने की अटकलें लग रही हैं, तो क्या नीतीश इतने अनुभवहीन हैं कि बीजेपी के बहुमत के करीब पहुंचने पर भी वह मुख्यमंत्री बने रहने के लिए अड़े रहेंगे? इस स्थिति में भी उन्हें केंद्र के साथ संबंध बनाए रखने की आवश्यकता है।

नीतीश की छवि पर पलटू राम का छाया

बिहार एनडीए में बीजेपी के अलावा हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (सेक्युलर) और एलजेपी (राम विलास पासवान) ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया है। जब शाह की टिप्पणी के बाद एनडीए में असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई, तब नीतीश कुमार के विरोधी उन्हें बार-बार 'पलटू राम' कहकर चिढ़ाते हैं, जो कि उनके बार-बार पाला बदलने के कारण है। नीतीश कुमार स्वयं भी अपनी इस छवि को भली-भांति समझते हैं। इस वर्ष जनवरी में, उन्होंने लालू यादव की आरजेडी का साथ छोड़कर पुनः बीजेपी में शामिल होने का निर्णय लिया। पिछले सितंबर में, उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की उपस्थिति में दिल्ली में एक कार्यक्रम में कहा था, 'हमारे संबंध 1990 के दशक से हैं... बिहार में जितने भी सकारात्मक कार्य हुए हैं, वे हमारे (एनडीए) द्वारा किए गए हैं।' उन्होंने राजद या लालू का नाम लिए बिना कहा, 'हमसे पहले जो लोग सत्ता में थे, उन्होंने कुछ नहीं किया। उनके साथ दो बार जाना मेरी गलती थी।'

राजद के साथ असहज थे नीतीश!

2022 के अगस्त में जब नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ महागठबंधन में शामिल होने का निर्णय लिया, तब लालू प्रसाद यादव की पार्टी ने 75 विधायकों के समर्थन से उन्हें मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखा, क्योंकि उनके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। उनका मुख्य उद्देश्य बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना था। इस दौरान, नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से 2025 के विधानसभा चुनावों में अपने तत्कालीन उपमुख्यमंत्री और लालू के पुत्र तेजस्वी यादव को नेतृत्व सौंपने का आश्वासन दिया था। बाद में राजद के मंत्रियों से असहज होने का आरोप लगाकर गठबंधन से हाथ जोड़ लिया।

एनडीए का साथ छोड़ना राजनीतिक रुप से नहीं है लाभप्रद

केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार है। नीतीश के पाला बदलने के बावजूद, वर्तमान में उसकी स्थिरता को कोई खतरा नहीं है।  इसका अर्थ यह है कि 2029 तक केंद्र के साथ संबंध बनाए रखना उनकी राजनीतिक भलाई के लिए आवश्यक है।


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