धर्म कथा भाग 1 : मोक्ष प्राप्ति का रास्ता क्या है? सिर्फ कर्म कर के या फिर ज्ञान के सहारे?अप्सरा का सवाल और इंद्र के दूत का जवाब, जानिए भवसागर से पार उतरने का उपाय क्या है?
धर्म कथा भाग 1 : धर्म कथा News4Nation के इस स्पेशल अंक में आज हम आपको बताएंगे मोक्ष प्राप्ति का रास्ता क्या है हम सिर्फ ज्ञान के सहारे या कर्म करके ही मोक्ष पा सकते हैं या नहीं....
धर्म कथा भाग 1 : एक बार सुतीक्ष्ण नामक एक ब्राह्मण के मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि मोक्षप्राप्ति का साधन क्या है? कर्म है अथवा ज्ञान है, या फिर कर्म और ज्ञान-दोनों हैं। इस शंका के समाधान के लिए वह महर्षि अगस्ति (अगस्त्य) के आश्रम में पहुँचा और उसने महर्षि से प्रश्न किया-मुनिवर। ज्ञान अथवा कर्म में से मोक्ष का साधन कौन सा समुचित है? अगस्ति ने उत्तर दिया वत्स! जिस प्रकार पक्षी अपने दो पंखों के सहारे उड़ता है उसी प्रकार मनुष्य ज्ञान और कर्म के समुच्चय के द्वारा ही परम पद को प्राप्त कर सकता है, किसी एक से नहीं। एक पुराना वृत्तान्त सुनो-अग्निवेश्य का एक पुत्र गुरुगृह से वेद-वेदाङ्गादि का अध्ययन करने के बाद अपने घर लौटा और वह भी इसी प्रकार की शंका से व्यथित होकर नित्य-नैमित्तिक सभी कमों को छोड़कर चुपचाप घर में रहने लगा। अग्निवेश्य ने अपने पुत्र में इस प्रकार की अकर्मण्यता देखकर उससे कहा-पुत्र। तुमने कर्मों को क्यों छोड़ दिया है? कर्म किए बिना तुमको सिद्धि कैसे प्राप्त होगी?
पुत्र कारुण्य ने कहा-पिताजी! कुछ शास्त्र तो परमार्थसिद्धि के लिए कर्म करने का उपदेश देते हैं और कुछ कर्म-त्याग का उपदेश करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सा मार्ग उचित है? आप ही इस विषय में मुझको यथोचित उपदेश दीजिए। अग्निवेश्य बोले पुत्र! इस विषय में तुमको में एक पुरानी कथा सुनाता हूँ, उसको सुनकर तुम्हारी यह शंका पूर्णतया निवृत्त हो जाएगी एक समय सुरुचि नाम की एक सुन्दर अप्सरा हिमालय के शिखर पर बैठी हुई प्रकृति की शोभा का निरीक्षण कर रही थी।
उसने इन्द्र के एक दूत को अन्तरिक्ष में जाते हुए देखकर उसको बुलाया और उससे पूछा-दूत! तुम कहाँ से आ रहे हो? और कहाँ जाओगे? दूत ने उत्तर दिया सुभगे! भूलोक में अरिष्टनेमी नाम का एक राजा था। उसने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर अपने परम कल्याण के लिए गन्धमादन पर्वत पर घोर तप करना आरम्भ कर दिया था। देवेन्द्र को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने दूत्तों को भेजकर उनको बड़े आदर और सत्कार के साथ अपने यहाँ बुलवा लिया और स्वर्ग में रहने के लिए उनको निमन्त्रित किया। राजा ने देवेन्द्र से यह प्रार्थना की हे देव स्वर्ग में वास करने से पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि स्वर्ग में वास करने के गुण और दोष क्या है? देवेन्द्र ने कहा-राजन्! स्वर्ग में नाना प्रकार के भोग हैं, परन्तु वे सभी अपने-अपने शुभ कमों के अनुसार ही प्राप्त होते हैं।
उत्तम कर्म करनेवालों को उत्तम भोग, मध्यम कर्म करनेवालों को मध्यम और कनिष्ठ प्रकार के पुण्य कर्म करनेवालों को कनिष्ठ प्रकार के भोग स्वर्ग में प्राप्त होते हैं। उत्तम श्रेणी के व्यक्तियों को निम्न श्रेणी वालों के प्रति अभिमान रहता है, निम्न श्रेणीवालों को उत्तम श्रेणीवालों के प्रति ईर्ष्या और मन में वेदना होती है, ऐसे ही बराबर श्रेणी के व्यक्तियों में एक को दूसरे के प्रति स्पर्धा होती है। पूर्वकृत पुण्य कमों के फल भोग द्वारा क्षीण हो जाने पर स्वर्गप्राप्त प्राणियों को पुनः मर्त्य लोक में वापिस जाकर जन्म-मरण के चक्र में पड़ना पड़ता है। यह सुनकर राजा ने देवेन्द्र से कहा-देव! इस प्रकार के स्वर्ग में रहने की मेरी इच्छा नहीं है। मुझको आप कृपा करके गन्धमादन पर्वत पर वापिस भेज दीजिए। वहीं पर मैं तप करते-करते किसी प्रकार की भोगेच्छा न रखते हुए अपने शरीर का त्याग कर दूँगा। ऐसा सुनकर देवी। देवेन्द्र ने मुझसे यह कहा-दूत! ये राजर्षि तो तत्त्वज्ञान के अधिकारी हैं। इनको तुम ऋषि वाल्मीकि के आश्रम ले जाओ। वे इनको आत्मज्ञान का उपदेश देंगे, जिसके श्रवण से इनको मोक्ष की प्राप्ति होगी।
सुरुचिः देवराज इन्द्र की यह आज्ञा पाते ही मैं राजा अरिष्टनेमी को ऋषि वाल्मीकि के आश्रम ले गया। वहाँ पर पहुँचकर राजा ने ऋषिवर को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और उनसे यह प्रश्न किया हे प्रऋषिश्रेष्ठ। कृपा करके मुझको वह मार्ग बतलाइए जिसके द्वारा मैं संसार के बन्धन और दुःखों से सदा के लिए निवृत्त हो जाऊँ। मुनिपुङ्गव वाल्मीकि ने कहा-राजन्! मैं तुमको मोक्षप्राप्ति का वह सम्पूर्ण उपदेश सुनाता हूँ जोकि किसी समय ऋषि वसिष्ठ ने अपने शिष्य दाशरथि राम को दिया था। उसको सुनकर तुमको आत्मबोध होगा और तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे।
इस मोक्षोपायस्वरूप वसिष्ठ-राम-संवाद का मैंने बहुत दिन हुए संग्रह किया था। इसकी रचना करने पर मैंने इसको अपने परम विनीत शिष्य भारद्वाज को सुनाया था। भारद्वाज इसको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और ब्रह्मा के पास जाकर उन्होंने इसको ब्रह्मा को सुनाया। ब्रह्मा इसको सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने यह आशीर्वचन कहा-वाल्मीकि ने संसार के उपकार के लिए यह ऐसा उत्तम ग्रन्थ बनाया है कि इसके श्रवणमात्र से ही मनुष्य भवसागर से सहज में ही पार हो जाएँगे। राजन्। वही ग्रन्थ मैं तुमको अब तुम्हारे हित के लिए सुनाता हूँ। इस प्रकार इन्द्रदूत ने अप्सरा सुरुचि को वह सम्पूर्ण कथा कह सुनाई जोकि उसने महर्षि वाल्मीकि के मुख से चुनी थी।
कल के अंक में भगवान राम थे कौन...
साभार...योगवाशिष्ठ:
महारामयणम खंड-1