Religion: सावन में जागृत होता है शिव का तांडव, मिट्टी के पार्थिव से महाकाल तक की अमृत-साधना की दिव्य यात्रा"

श्रावणमास को भगवान रुद्र के साक्षात् अवतरण के समतुल्य माना गया है। यह वही काल है जब मेघमाला आकाश को आच्छादित करती है, और जलधारा शिवलिंग पर अनायास ही गिरकर महादेव का अभिषेक करती है ।

सावन मिट्टी के पार्थिव से महाकाल तक की अमृत-साधना - फोटो : social Media

Religion: श्रावणमासे शंभोराराधना स्वयमेव फलदायिनी भवति। धर्मशास्त्र, पुराण व आगमों में श्रावणमास को भगवान रुद्र के साक्षात् अवतरण के समतुल्य माना गया है। यह वही काल है जब मेघमाला आकाश को आच्छादित करती है, और जलधारा शिवलिंग पर अनायास ही गिरकर महादेव का अभिषेक करती है । यह दृश्य केवल नैसर्गिक घटना नहीं, अपितु ब्रह्मांडीय श्रद्धा की पावन अभिव्यक्ति है।

भगवान शिव: अनादि, अनंत और अभंग

शिव न तो प्रारंभ हैं, न अंत; वे स्वयं समय के साक्षी हैं। वे भव हैं  यानि सृष्टि का आदिम आधार, और वे विभव भी हैं  जो सर्वसंपन्न हैं, सबके भीतर और सबके परे भी। शिव का स्वरूप जितना सरल है, उतना ही रहस्यमय भी। कोई उन्हें कैलासपति कहकर वंदन करता है, तो कोई उन्हें भीषणरूपधारी महाकाल मानता है। वे सन्यासी भी हैं, गृहस्थ भी। वे संहारक भी हैं, और करुणा के सागर भी।

पार्थिव शिव और लोक की सहजता

जहाँ श्रीहरि विष्णु की मूर्ति के लिए सुवर्ण, ताम्र या शिला की आवश्यकता होती है, वहाँ शिव केवल मृत्तिका से भी प्रसन्न हो जाते हैं। पार्थिव लिंग की प्रतिष्ठा और पूजन, श्रावणमास में विशेष पुण्यकारी मानी गई है। वह मिट्टी, जो जननी है, उसी से शिवलिंग बना लिया गया, और पीपल वृक्ष के नीचे पूजन कर विसर्जित कर दिया गया।  न कोई ताम-झाम, न विधि का आडंबर। यही शिव की स्वभाविकता है। वे आत्मा की तरंगों को पढ़ते हैं, मन की मौन भाषा को समझते हैं।

“नमः शिवाय” – यह पंचाक्षरी मंत्र स्वयं मुक्तिपथ का द्वार है।

कोई रुद्री से पूजन करे या केवल नमः शिवाय जपे, शिव प्रसन्न हो जाते हैं। यही उनकी अहैतुकी कृपा का प्रमाण है।

शिव का तांडव – कला, शक्ति और ब्रह्म की समष्टि

शिव का तांडव न केवल नाट्य है, वरन् संपूर्ण ब्रह्मांड की गतिशीलता का प्रतीक है। जब शिव नृत्य करते हैं, तब उनके पादस्पर्श से पृथ्वी कांपती है, उनके केशों से गंगा बहती है, उनके डमरु की नाद से वेदों की उत्पत्ति होती है। यह तांडव ही है जो सृष्टि, स्थिति और संहार के चक्र को गतिमान करता है।यह भीषण और सुंदर का अनुपम संगम है। जहाँ विनाश में भी सृजन है, और मृत्यु में भी नवजीवन का संकेत।

मानव मन की बलिवेदी पर अमृत साधना

शिव की उपासना केवल पूजन से नहीं, अपितु आत्मबलिदान से होती है। जिस प्रकार समुद्र मंथन में अमृत पाने के लिए पहले विष का पान करना पड़ा, उसी प्रकार आत्मा को शिवमय होने से पहले राग-द्वेष के कालकूट से टकराना पड़ता है। शिव स्वयं नीलकंठ बनकर संसार को यह संदेश देते हैं कि जीवन की पूर्णता, कष्टों की अवहेलना और विषपान की सहिष्णुता से ही मिलती है।

कबीर, तुलसी और विद्यापति जैसे भक्तों ने जिस विरह की अग्नि में तपकर शिवत्व को पाया, वह विरह साधारण नहीं, वह अलौकिक तड़प थी - “अपने विरह अपन तनु जरजर” जैसा साक्षात्कार विरह-योग के सर्वोच्च शिखर पर ही संभव होता है।

शिव की सहजता और दिव्यता का संतुलन

शिव को ना तो स्वर्णसिंहासन चाहिए, ना ही काष्ठ का कक्ष। वे ध्यान में रमते हैं, समाधि में विलीन होते हैं, और भूत-प्रेतों के साथ विचरण करते हैं। वे त्रिगुणातीत हैं, किन्तु त्रिगुणात्मक भी; वे योगीश्वर हैं, पर गृहस्थ आश्रमी भी। यही कारण है कि शिव हर वर्ग, हर जाति, हर भाव, हर युग के देवता हैं।

उनका रूप जितना भीषण है, उतना ही करुणामय भी। एक ओर वे अपने नर्तन से पर्वतों को चूर्ण करते हैं, तो दूसरी ओर एक लोटा जल से प्रसन्न हो जाते हैं।

भीषणं भीषणानां –शिव का रौद्रतम स्वरूप

तांडव करते हुए जब उनके गले में लिपटे नाग फन फैलाते हैं, और फणों से विष झरने लगता है, तब वह केवल भय का नहीं, चेतना का भी आवाहन होता है। उनके वज्रपात से जब पर्वत फटते हैं, तब मूर्च्छित समाज की मंथरता टूटती है, और नवचेतना जन्म लेती है। यह शिव का वह रूप है, जो समय को चीर कर सत्य को प्रकट करता है।

शिव और समता का सूत्र

शिव न किसी वर्ण के हैं, न वर्ग के। वे सर्वजनसुलभ हैं। चाहे चांडाल हो या चक्रवर्ती सम्राट, सभी को शिव की कृपा समान भाव से प्राप्त होती है। वे श्मशानवासी हैं, पर उन्हें वैदिक ऋषियों का पूजन भी प्राप्त होता है। वे साक्षात् समता के देवता हैं।

श्रावणमास  आत्मा के अमृतस्नान का काल

सावन के झरते हुए जल में केवल जल नहीं गिरता, वह आत्मशुद्धि का झरना बन जाता है। एक-एक बूंद शिवलिंग पर गिरती है और हमें भीतर से धो देती है। यह मास आत्मनिरीक्षण का है, आत्मबलिदान का है। शिव केवल पूजे नहीं जाते, वे आत्मा में उतरते हैं — “शिवोऽहम्” का बोध कराते हैं।

आज जब हम आकुल है, संशय और विषाद में डूबा है, तब शिव की आराधना न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि आत्मा की प्रज्ञाजागृति भी है। जब तक हम शिव के भीषण-करुण सौंदर्य को नहीं पहचानते, तब तक संसार के आनंद का अनुभव भी अपूर्ण रहेगा।

शिव का तांडव हमें साहस देता है कि हम विष को भी पी जाएँ, शिव की सरलता हमें सिखाती है कि पूजा हृदय से हो, विधियों से नहीं। और शिव की अखंड उपस्थिति हमें यह विश्वास देती है कि चाहे कितना भी अंधकार क्यों न हो । शशिशेखर के जटाओं से उतरती गंगा सब कुछ पवित्र कर देगी।

श्रावण मास के इस दिव्य अवसर पर  केवल जल चढ़ाएं नहीं, स्वयं शिव में विलीन हो जाएँ।"ॐ नमः शिवाय"।ॐ  राम