क्या सिर्फ बेटा ही दे सकता है मुखाग्नि? जानिए परंपरा के पीछे की असली सोच

भारतीय परंपरा में अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी बेटों को क्यों दी जाती है? क्या बेटियाँ यह काम नहीं कर सकतीं? जानिए इस धार्मिक और सामाजिक परंपरा का अर्थ, इतिहास और आज के बदलते नज़रिए।

क्या सिर्फ बेटा ही दे सकता है मुखाग्नि? जानिए परंपरा के पीछे की असली सोच

Putra dharma : भारतीय संस्कृति में सदियों से कई रीति-रिवाज चले आ रहे हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है- किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार बेटे द्वारा किया जाता है। खासकर हिंदू धर्म में यह प्रबल मान्यता है कि अंतिम संस्कार की प्रक्रिया में बेटा सबसे अहम भूमिका निभाता है। लेकिन ऐसा क्यों है? क्या इसके पीछे कोई धार्मिक या सामाजिक कारण है? आइए इसे सरल भाषा में समझने की कोशिश करते हैं। 



अंतिम संस्कार : ऐसा माना जाता है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा को शांति तभी मिलती है जब उसका अंतिम संस्कार विधिवत तरीके से किया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण काम होता है मुखाग्नि देना यानी शव को अग्नि देना। यह काम पारंपरिक रूप से बेटे के जरिए ही किया जाता है। 


पुत्र का अर्थ : धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, "पुत्र" का अर्थ है - जो मृत्यु के बाद भी अपने माता-पिता का मार्गदर्शन करता है। एक मान्यता यह भी है कि 'पुत्र' दो अक्षरों से मिलकर बना है - 'पु' जिसका अर्थ है नरक और 'त्र' जिसका अर्थ है मुक्तिदाता। यानी पुत्र वह है जो अपने माता-पिता को जीवन के बाद की यात्रा में कठिनाइयों से बचाता है। इसी सोच के आधार पर यह जिम्मेदारी बेटे को दी गई।


बेटियों को नहीं थे अधिकार : प्राचीन काल में समाज की संरचना कुछ अलग थी। उस समय बेटियों को ज्यादा अधिकार नहीं दिए जाते थे। उन्हें घर से बाहर जाने, फैसले लेने या सामाजिक कार्यों में भाग लेने की आजादी कम थी। इसलिए यह भी माना जाता था कि बेटियों के लिए अंतिम संस्कार जैसे कार्य करना उचित नहीं होगा। यह सोच धीरे-धीरे एक परंपरा बन गई।


बेटा होता है घर का वारिस : एक और बात यह भी मानी जाती है कि बेटा घर का वारिस होता है, वह वंश को आगे बढ़ाता है, इसलिए मृत्यु के बाद की जिम्मेदारी भी उसी की होती है। लेकिन समय के साथ स्थिति बदल गई है। अब बेटियां भी पूरी जिम्मेदारी के साथ अपने परिवार का साथ दे रही हैं। कई बार बेटियाँ अपने माता-पिता की देखभाल करती हैं और उनकी मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार भी पूरा करती हैं।



बेटियाँ अब अंतिम संस्कार भी करने लगी हैं : आज के समय में कानून और समाज दोनों ही इस बात की इजाज़त देते हैं कि बेटियाँ भी अंतिम संस्कार कर सकती हैं। कई शहरों में तो बेटियाँ ही अपने माता या पिता की चिता को मुखाग्नि देती हैं और समाज भी इसे सम्मान की नज़र से देखने लगा है। धीरे-धीरे परंपराएँ बदल रही हैं और लोग भावनाओं को ज़्यादा महत्व देने लगे हैं।

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