बावरे वसंत की अगवानी... कहाँ रहेगी चिड़िया आलम में...राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी.....
पटना- कामदेव की ऋतु वसंत से भला हिन्दी साहित्यकार कैसे दूर रहते. वसंत में यौवन अंगड़ाई लेने लगता है . वसंत ऋतु एक भाव है जो प्रेम में समाहित हो जाता है. प्रेम मन की पकड़ से बाहर रहता है.वसंत में प्रेम का बाण चुभने लगता है. बसंत ऋतु हिन्दी कवियों की प्रिय ऋतु रही है.हिन्दी और संस्कृत के कवियों पर बसंत का खूब रंग चढ़ा.महाकवि कालिदास का वसंत... कालिदास के ऋतुसंहार में जब वसंत आता है तो आम के पेड़ों पर बौर लहलहाने लगते हैं, फूलों पर भंवरे मंडराने लगते हैं और प्रेम में डूबे व्याकुल हृदय आनंद में अठखेलियां करने लगते हैं. आम के पेड़ों पर आए बौर, अंगारों की तरह दिखते पलाश के फूल, हरियाली से ढंकी धरती और गुलाबी ठंड के बाद वसंत ऋतु का आगमन .. कालिदास ऋतु संहार में आम बौराया है, पुष्प सुगंध बिखेर रहे हैं. प्रकृति ने अपना श्रृंगार किया है और वसंत पंचमी इसी प्रकृति के श्रृंगार का स्वागत है. पुष्प से सुगंधित बयार मानव मन उल्लास से सरोबार, वहीं सरस्वती विद्या और बुद्धि की प्रदाता देवी हैं.ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु.
अब देखिए न छायावाद के स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला पर कैसे वसंत का रंग चढ़ा है.
रँग गई पग-पग धन्य धरा,/हुई जग जगमग मनोहरा ।
वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर, /तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर/ खुली रूप - कलियों में पर भर/ स्तर स्तर सुपरिसरा /
गूँज उठा पिक-पावन पंचम /खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम,
सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम/ वन श्री चारुतरा
केदारनाथ अग्रवाल को भी वसंत व्याकुल कर रहा है.
हवा हूँ, हवा मैं/ बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी - अनोखी हवा हूँ।बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला........
नज़ीर अकबराबादी पर भी वसंत का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्होंने कहा-
कहाँ रहेगी चिड़िया आलम में / जब बहार की आकर लगंत हो
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत/ जहां में फिर हुई ऐ यारो आश्कार
अमीर खुसरो ने तो सरसो के माध्यम से अपनी भावनाओं को उड़ेल दिया है-
सकल बन फूल रही सरसों। बन बिन फूल रही सरसों। अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार, और गोरी करत सिंगार, मलनियाँ गेंदवा ले आईं कर सों, सकल बन फूल रही सरसों।..
तरह तरह के फूल खिलाए, ले गेंदवा हाथन में आए।
निजामुदीन के दरवज़्ज़े पर,आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों। सकल बन फूल रही सरसों।
सुभद्राकुमारी चौहान ने तो जलियाँवाला बाग के माध्यम से वसंत का वर्णन किया है.
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते, काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से, वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है, हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना, यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना, दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें, भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले, तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना, स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर, कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं, अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना, कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर, शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना, यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
अब प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत वासंती पवन से दूर कैसे रहते---
उस फैली हरियाली में, कौन अकेली खेल रही मा!
वह अपनी वय-बाली में?सजा हृदय की थाली में--
क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
ऊषा की मृदु-लाली में--किसका पूजन करती पल पल
बाल-चपलता से अपनी?मृदु-कोमलता से वह अपनी,
सहज-सरलता से अपनी?मधुऋतु की तरु-डाली में--
रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,भर कर मुकुलित अंगों में
मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?खिल खिल बाल-उमंगों में,
हिल मिल हृदय-तरंगों में!
वीर रस के कवि में भी करुणा ने उभार ले लिया है. रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं..
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी, लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला,रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने, परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई, उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है, रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ, राजा रानी की युग से यही प्रथा है
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं, थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने, रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ, रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ
छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा-
पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं
युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा, हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा
कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं, शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है
है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये,और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये
मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है, लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है
क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया,सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया
घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में, थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में
धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ, माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ
सोहन लाल द्विवेदी ने बसन्ती पवनआया लिख कर स्वागत किया तो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सखि आयो बसंत रितून को कंत कूकै लगीं कोइलैं कदंबन पै बसंत होली के माध्यम से हूक निकाला तो मलिक मुहम्मद जायसी ने बसंत-खंड के माझ्यम से वसंत का स्वागत किया.
बाब नागार्जुन भी वसंत के रंग से बच नही पाए..पहुंच गए वसंत की अगवानी करने...........
दूर कहीं पर अमराई में कोयल बोली/ परत लगी चढ़ने झींगुर की शहनाई पर
वृद्ध वनस्पतियों की ठूँठी शाखाओं में /पोर-पोर टहनी-टहनी का लगा दहकने
टूसे निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराए/अलसी के नीले पुष्पों पर नभ मु्स्काया
मुखर हुई बांसुरी, उंगलियाँ लगीं थिरकने/ पिचके गालों तक पर है कुंकुम न्यौछावर
टूट पड़े भौंरे रसाल की मंजरियों पर/ मुरक न जाएँ सहजन की ये तुनुक टहनियाँ
मधुमक्खी के झुंड भिड़े हैं डाल-डाल में/ जौ-गेहूं की हरी-हरी वालों पर छाई
स्मित-भास्वर कुसुमाकर की आशीष रंगीली
माखनलाल चतुर्वेदी ने तो स्मृति का वसन्त के माध्यम से ऋतुओं के राजा का स्वागत किया....
स्मृति के मधुर वसंत पधारो! शीतल स्पर्श, मंद मदमाती/ मोद-सुगंध लिये इठलाती /वह काश्मीर-कुंज सकुचाती /निःश्वासों की पवन प्रचारो/ स्मृति के मधुर वसंत पधारो!
तरु दिलदार, साधना डाली/ लिपटी नेह-लता हरियाली /वे खारी कलिकाएँ उन पर/तोड़ूँगी, ऋतुराज उभारो/ स्मृति के मधुर वसंत पधारो!.....
बहरहाल वसंत का वासंती रंग साहित्यकारों पर खूब चढ़ा.अंत में निराला ने लिखा कि .. वर दे वीणा वादिनी वर दे....